व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र कर्त्तव्य की पूर्ति इसलिये सम्भव है कि वह निश्चित व सीमित है ।

श्र भोगरूपी आवश्यकताओं (सुविधा-संग्रह) की पूर्ति इसलिये सम्भव नहीं है कि वह अनिश्चित एवम् असीमित है ।

श्र यही कारण है कि कर्त्तव्यवादी प्रगति शान्ति की ओर तथा भोगवादी प्रवृत्ति अशान्ति की ओर उन्मुख है ।

श्र समस्त कर्त्तव्य सम्बन्ध एवम् सम्पर्क की सीमा तक ही है ।

श्र सम्वेग से ही चयन क्रिया है जो संग्रहवादी, पोषणवादी, दोहनवादी, त्यागवादी या शोषणवादी है । यह समस्त क्रियाएँ आशा की प्रक्रिया में है ।

श्र कर्त्तव्य की पूर्ति के बिना मानव का जीवन सफल नहीं है ।

श्र भौतिक समृद्धि तथा बौद्धिक समाधान से परिपूर्ण जीवन ही सफल जीवन है ।

श्र आवश्यकता से अधिक उत्पादन तथा सहअस्तित्व में ही भौतिक समृद्धि है तथा अस्तित्व में अनुभव स्वयं निर्भ्रमता एवं बौद्धिक समाधान है ।

श्र विज्ञान एवम् विवेक का समन्वित अध्ययन तथा कर्माभ्यास ही निर्भ्रमता सहज प्रमाण ।

श्र मानवीयतापूर्ण जीवन में आवश्यकताएँ सीमित एवम् मर्यादित हो जाती हैं । अतिमानवीयतापूर्ण जीवन में तो आवश्यकताएँ और भी संयत हो जाती है ।

श्र जो जितना भ्रम और भय का पात्र है, वह साधनों को सुखी होने के लिये उतना ही महत्वपूर्ण मानता है । जैसे भय त्रस्त मानव आयुध एवम् आश्रय पर, लोभ त्रस्त मानव संग्रह पर , द्वेष त्रस्त मानव नाश पर, अज्ञानी दूसरों को दोष देने पर, अभिमान त्रस्त दूसरों की उपेक्षा एवम् घृणा करने पर ही सुखी होने का प्रयास करता है, जबकि स्व-पात्रता ही सुखी एवम् दुःखी होने का कारण है ।

श्र वातावरण एवम् अध्ययन सुपात्र अथवा कुपात्र बनाने में सहायक हैं ।

श्र मानवीयता पूर्ण व्यवहार, उत्पादन, अध्ययन, कार्य व नीतियों में पारंगत होने पर ही मानव सुखी होता है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - आठ

पद एवं पदातीत