व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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जबकि भ्रमित मानव में हीनता, दीनता, क्रूरता स्वभाव है । तथा आसक्ति और प्रलोभन को धर्म माने रहता है ।

श्र लोक व लोकेश भेद से लक्ष्य, अंतरंग एवं बहिरंग भेद से यत्न, व्यष्टि एवं समष्टि भेद से प्रयास, ह्रास एवं विकास भेद से प्रगति, न्यून व पूर्ण भेद से फल, सम-विषम तथा मध्यस्थ भेद से प्रभाव, इंद्रिय एवं इंद्रियातीत भेद से अनुभव, सहज एवं असहज भेद से प्रतिभाव, विहित एवं अविहित भेद से प्रवृत्ति व आसक्ति तथा उच्च और नीच भेद से भाव की स्थिति मानव में है । जीवन ही लक्ष्य का धारक-वाहक है ।

श्र परिणामवादी लक्ष्य को लोक तथा उससे मुक्त को लोकेश; मन, वृत्ति, चित्त एवं बुद्धि से किए गए कार्य को अंतरंग तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों द्वारा किए गए कार्य को बहिरंग, इकाईत्व को व्यष्टि तथा संपूर्ण को समष्टि, अवनति की ओर ह्रास, उन्नति की ओर विकास, जिस प्राप्ति से वांछित आशय की पूर्ति हो उसे पूर्णफल तथा अन्यथा में न्यून फल, उद्भव वादी प्रभाव को सम, विभववादी प्रभाव को मध्यस्थ तथा प्रलयवादी प्रभाव को विषम; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों द्वारा किए गए व्यवहार मात्र से प्राप्त जानकारी को इन्द्रियानुभव तथा मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्धि द्वारा प्राप्त जानकारी को अतीन्द्रियानुभव या इन्द्रियातीत अनुभव, यथार्थ की ओर जो प्रेरणा है उसे सहज प्रतिभाव तथा उसके विपरीत में असहज प्रतिभाव; न्याय, धर्म तथा सत्य के प्रति जो निष्ठा है उसे विहित स्वीकृति तथा उसके विपरीत में अविहित आसक्ति, समाधानवादी भाव को उच्च भाव तथा समस्यावादी प्रवृत्ति को नीच भाव की संज्ञा है ।

श्र अध्ययन विधि से सहअस्तित्व रूपी सत्य सहज मन में पुष्टि मनन (स्वीकारने के रूप में), वृत्ति में पुष्टि तुलन (गुणात्मक विधि से), चित्त में पुष्टि साक्षात्कार, बुद्धि में पुष्टि बोध संज्ञा है ।

श्र अज्ञान के मूल में अहंकार (अबोधता) तथा ज्ञान के मूल में आत्मबोध तथा सहअस्तित्व रूपी परम सत्यबोध को पाया गया है ।

श्र स्फुरण, प्रेरणा तथा क्रांति के भेद से मनन, संतुलन अथवा असंतुलन के भेद से तुलन, अर्थपूर्ण अथवा आरोप के भेद से चित्रण तथा अनुभवमूलक विधि से सत्य बोध है ।

:: संतुलन पूर्वक (श्रेय) प्राप्त सम्वेग को स्फुरण एवं प्रेरणा और असंतुलन पूर्वक (प्रेय) प्राप्त सम्वेग की प्रतिक्रांति संज्ञा है ।

श्र न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य दृष्टिकोण से की गयी तुलना को संतुलित तथा प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ दृष्टिकोण से की गयी तुलना को असंतुलित वृत्ति संज्ञा दी जाती है ।

श्र न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य दृष्टिकोण से किए गए चित्रण को यथार्थ तथा प्रियाप्रिय, हिताहित , लाभालाभ के दृष्टिकोण से किए गए चित्रण को अयथार्थ चित्रण संज्ञा है ।

श्र स्वस्वरूप (आत्मा) की साक्षी में किए गए बोध की सत्यबोध तथा इसके विपरीत में आरोपित मानना ही भ्रम है जो असत्य है । आत्मबोध रहित बुद्धि की अहंकार संज्ञा है । भ्रमित (आरोपित)