व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
चित्रण की अभिमान संज्ञा है । जिस प्रकार असत्य का अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार अहंकार का भी अस्तित्व नहीं है ।
श्र कर्त्तव्य की ओर अग्रेषित संवेग को स्फुरण तथा प्रेरणा एवं विवशता पूर्वक प्राप्त बौद्धिक प्रयास एवं शारीरिक चेष्टा को प्रतिक्रान्ति की संज्ञा है । श्रेष्ठता की ओर क्रांति और नेष्ठता की ओर प्रतिक्रांति संज्ञा है ।
श्र समस्या रहित अथवा समस्या के समाधान का अनुभव करने को संतुलन और समस्या सहित अथवा समस्या को उत्पन्न करने वाली क्रिया को प्रतिक्रान्ति या असंतुलन के नाम से अंकित किया गया है ।
श्र समस्या बौद्धिक तथ्य है तथा विवशता भौतिक तथ्य है ।
श्र सर्वांगीण दर्शन सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान संज्ञा है और उसके विपरीत में आरोप संज्ञा है ।
श्र अपरिणामवादी सत्ता सहज सहअस्तित्व की पहचान के सहित अनुभव सहज समझदारी को सत्यबोध और उसके विपरीत को भ्रम संज्ञा है ।
श्र तीव्र सम्वेग वह है जो क्रिया के रूप में अवतरित होता है ।
श्र सम्वेग का दबाव, उसकी गति एवम् पिपासा का निर्धारण इच्छा तथा प्रयोजन से नियंत्रित है ।
श्र मानव की परस्परता में जो सम्पर्क एवं सम्बन्ध है वह निर्वाह के लिए, विकास (जागृति) के लिए, तथा भोग के भेद से है । जागृति के लिए जो सम्पर्क एवम् सम्बन्ध का प्रयास है, वह सामाजिकता के लिए है । निर्वाह के लिए जो सम्पर्क एवम् सम्बन्ध का प्रयास है, वह कर्त्तव्य पालन करते हुए वर्तमान को संतुलित रखने के लिए और भोगेच्छा से जो सम्पर्क एवम् सम्बन्ध का प्रयास है, वह मात्र इन्द्रिय लिप्सा एवम् शोषण के कारण है । जिससे असंतुलन और समस्या वश पीड़ा होता है ।
श्र जागृति के लिये किये गये व्यवहार को पुरुषार्थ, निर्वाह के लिये किये गये प्रयास को कर्त्तव्य तथा भोग के लिये किये गये व्यवहार को विवशता के नाम से जाना गया है ।
श्र कर्त्तव्य व आवश्यकता का भाव मानव में है ।
:: कर्त्तव्य :- संबंधों की पहचान सहित निर्वाह क्रिया, जिससे निष्ठा का बोध होता है ।
:: दायित्व :- संबंधों की पहचान सहित मूल्यों का निर्वाह सहित मूल्यांकन क्रिया जिससे तृप्ति का बोध होता है ।
श्र कर्त्तव्य की पूर्ति है, भोगरूपी आवश्यकता की पूर्ति नहीं है ।