व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र जो जिसको लक्ष्य मानता है, वह उसको पाने के लिए प्रयासरत रहता है । मानवीय लक्ष्य समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व ही है ।

श्र लक्ष्य भेद से प्रयास, प्रयास भेद से प्रगति, प्रगति भेद से फल, फल भेद से प्रभाव, प्रभाव भेद से अनुभव, अनुभव भेद से प्रतिभाव, प्रतिभाव भेद से स्वभाव, स्वभाव भेद से यर्थाथ, यर्थाथता ही मानव लक्ष्य सहज परंपरा है ।

:: लक्ष्य :- जिसको पाना है वह लक्ष्य है । जागृति पूर्वक ही मानव लक्ष्य सुनिश्चित होता है । यह समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण है ।

:: प्रयास :- लक्ष्य की उपलब्धि के लिये यत्नपूर्वक किए गए कार्य की प्रयास संज्ञा है ।

:: प्रगति :- पूर्व से भिन्न आगे गुणात्मक विकास की ओर गति को प्रगति संज्ञा है । श्रेष्ठता और गुरुमूल्य की ओर गति ।

:: फल :- जिस अवधि के अनंतर क्रिया प्रणाली बदलती है, उस अवधि को फल संज्ञा है ।

:: प्रभाव :- विकास के लिए जो स्वीेकृति है, उसको प्रभाव संज्ञा है ।

:: अनुभव :- अनुक्रम से प्राप्त समझ अथवा अनुक्रम में निहित प्रभावों की पूर्ण स्वीकृति ही अनुभव है अथवा जिसके आश्रित जो प्रभाव हो वह उस का अनुभव है ।

:: अनुक्रम :- कड़ी से कड़ी अथवा सीढ़ी से सीढ़ी जुड़ी हुई विधि । सहअस्तित्व में ही अनुक्रम व अनुभव है ।

:: प्रतिभाव :- अनुभव के अनंतर बोध, चिंतन के रूप में प्रमाणित करने हेतु प्रवृत्ति ही प्रतिभाव है ।

:: स्वभाव :- प्रतिभाव से युक्त स्वमूल्यन की स्वभाव संज्ञा है ।

:: आसक्ति :- ह्रास अथवा भ्रम की ओर होने वाली या की जाने वाली गलतियों को सही मान लेना आसक्ति है । यही अमानवीयता है ।

:- ह्रास की ओर किया गया गलत मूल्यांकन ही आसक्ति है ।

:: भाव :- मूल्यांकन एवं मौलिकता की भाव संज्ञा है । भाव मौलिकता है, यथा जिस अवस्था और पदों में जो अर्थ, स्वभाव और धर्म के रूप में होते हैंं, वह उसकी मौलिकता है । मानव सुखधर्मी है । धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा स्वभाव है ।

भाव = मौलिकता = मूल्य = जिम्मेदारी, भागीदारी = फल परिणाम = मूल्यांकन ।