व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र सर्वमानव सुख, समाधान एवं सदुपयोगिता को सिद्ध कराने वाली व्यवस्था एवं व्यवहार का समर्थन तथा अनुसरण ही सुखी होने का एकमात्र विधि है ।

श्र प्रत्येक कर्म में कर्ता, उद्देश्य, कारण, प्रभाव और फल निहित है । प्रत्येक कर्ता के द्वारा कर्म, कर्म के लिए कारण एवं उद्देश्य, कर्म से फल एवं प्रभाव, फल एवं प्रभाव से आवश्यकता का निर्धारण सिद्ध है ।

:: कर्ता :- जिस कार्य में जितना विचार पक्ष का नियोजन है, वह विचारपक्ष ही उस कार्य के कर्ता पद को स्पष्ट करता है ।

:: कर्म :- विचार पक्ष के आकार का अनुकरण करने के लिये श्रम की कर्म संज्ञा है ।

:: कारण :- प्रत्येक सूक्ष्म क्रिया अर्थात् विचार के उद्गम के लिये प्रमुख स्पंदन ही समझदारी है । समझदारी का मूल स्पंदन सहअस्तित्व ही है । क्रिया की पृष्ठभूमि विचार ही है । क्रिया की पृष्ठभूमि ही कारण है । यही संस्कार का प्रमाण है ।

:: प्रभाव :- किसी फल परिणाम को प्रकट करने के लिए पाये जाने वाले स्पष्ट प्रेरणा अथवा स्फुरण की प्रभाव संज्ञा है । हर घटना और फल परिणाम प्रेरणा और स्फुरण से ही प्रकट होता है ।

:- क्रिया की प्रतिक्रिया की प्रभाव संज्ञा है ।

:: फल :-क्रिया प्रतिक्रिया के अंतिम परिणाम की फल संज्ञा है ।

:: आवश्यकता :- संपर्क एवं संबंध के निर्वाह हेतु एवं उपयोग के लिये जो प्रवृत्तियाँ हैंं, उनकी आवश्यकता संज्ञा है । सभी योगों में उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन निहित हैं ।

श्र कर्त्ता द्वारा कार्य का सम्पादन आवश्यकता की पूर्ति हेतु अथवा दायित्व कर्त्तव्य के पालन हेतु किया जाता है ।

श्र संपूर्ण कृतियाँ ह्रास की ओर अथवा विकास की ओर ही हैं ।

श्र कारण (क्रिया की पृष्ठभूमि) स्फुरण अथवा प्रेरणा भेद से है, जो संस्कार का रूप है ।

श्र प्रभाव सम, विषम तथा मध्यस्थ तीन ही प्रकार के हैं, जो क्रिया-प्रतिक्रिया, फल-परिणाम के रूप में परिलक्षित होते हैं ।

श्र फल के दो भेद हैंं :- पूर्ण फल और न्यून फल । प्रत्येक क्रिया किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही संपन्न की जाती है । क्रिया की प्रतिक्रिया के अंतिम परिणाम में आशय की पूर्ति होने पर पूर्ण फल तथा अपूर्ति होने पर न्यून फल की संज्ञा है ।

श्र साधक, साध्य तथा साधन समुच्चय की औचित्यता समन्वित होने पर पूर्ण फल होता है ।