व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
काल में समीचीन है । अतः ज्ञान रहता ही है लेकिन ज्ञान का उद्घाटन जागृत मानव के द्वारा होता है ।
श्र इस रीति से पदार्थ अनादि तथा ज्ञान भी व्यापक सिद्ध है ।
ज्ञ उपरोक्त संदर्भ में यह स्पष्ट हो जाना आवश्यक है कि पदार्थावस्था में संगठन और विघटन की जो प्रक्रिया पाई जा रही है, वह संकेत देती है कि समूह का होना, समूह की ओर पदार्थों का आकर्षित होना, उनका घनीभूत होना इस प्रकार से आकर्षण का नियम सिद्ध है ।
ज्ञ ठीक इसी प्रकार प्राणावस्था मेें समूह के साथ-साथ पुष्टिकरण पूरकता के अर्थ में प्रक्रिया भी परिलक्षित हो रही है, यथा- एक प्राणकोशा अनेकानेक खनिज-द्रव्यों को एकत्रित कर देता है और साथ ही उनमें रचना भी सिद्ध कर देता है । इससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि अस्तित्व के लिए हर प्राणी अपने ढंग से पूरकता रचना एवं उपयोग में व्यस्त है तथा उसमें कुलीनता के प्रति तीव्र निष्ठा या अक्षुण्ण निष्ठा भी सिद्ध होती है ।
ज्ञ अनंतर जैसे ही परमाणु विकसित होकर चैतन्य पद में संक्रमित होता है वह भारबंधन व अणु बंधन से (समूह बंधन) मुक्त हो जाता है पर तत्काल ही आशा के बंधन से युक्त हो जाता है । यह आशा मात्र जीने की ही रहती है ।
ज्ञ इससे ज्ञात होता है कि वर्तमान में मानव जिस समुदाय में सामाजिकता को पाना चाहता है उसके मूल में भय है ही । इसकी निवारण प्रक्रिया या आशय या प्रवृत्ति मानव में से, के लिए विकसित चेतना में संक्रमण है । इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मानव ज्ञान विवेक विज्ञान पूर्वक गुणों व स्वभावों के उपार्जन से अपनी मौलिकता सिद्ध करता है । इसी परिप्रेक्ष्य में योजना एवं प्रक्रिया पूर्वक केवल मानवीयता, अतिमानवीयता और अमानवीयता का ही रेखाकरण सिद्ध होता है । इसके आधार पर ही सामाजिकता के सभी आयामों का अध्ययन है ।
ज्ञ इस प्रकार सम्पूर्ण मानव ★ ो एक जगह में पाने की तथा एक जगह में होने की इच्छा के मूल कारण में उसका ‘सुखधर्मी’ होना है ।
ज्ञ सभी मानव सुख के लिये प्रत्याशी हैं । सुख के लिये प्रयास कर रहे हैंं । सर्वमानव सुख का अनुभव करना चाहते हैं । इसी केन्द्र बिन्दु के आधार पर सभी पक्षों का अध्ययन, नीति एवं व्यवहार में निष्ठान्वित होना एक आवश्यकता है ।
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - छ:
कर्म एवं फल
श्र संपूर्ण व्यवहार से मानव ने सुख की कामना की है ।