व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र निश्चित क्रिया को निर्देश करने वाले शब्द की सार्थक और इसके विपरीत शब्द की निरर्थक संज्ञा है ।
श्र मौलिकता का निर्णय रूप, गुण, स्वभाव तथा धर्म के निरीक्षण, परीक्षण तथा सर्वेक्षण से एवं अध्ययन के द्वारा होता है ।
श्र आकार, आयतन एवं घनता से ‘रूप’ का; सम, विषम और मध्यस्थ के भेद से ‘गुण’ का; इकाई द्वारा गुण की उपयोगिता से ‘स्वभाव’ का निर्णय होता है ।
★ हर गुण की प्रयुक्ति केवल उद्भव, विभव या प्रलय में ही है । अत: हर इकाई का स्वभाव उद्भव वादी, विभव वादी या प्रलयवादी स्वभाव के प्रवृत्ति के रूप में प्रस्तुत है । यह क्रिया विकास या ह्रास के ओर ही है ।
श्र जो जिसक ी धारणा है, वह उस इकाई का धर्म है ।
★ पदार्थावस्था का धर्म अस्तित्व; प्राणावस्था का धर्म अस्तित्व सहित पुष्टि; जीवावस्था का धर्म अस्तित्व, पुष्टि सहित जीने की आशा और ज्ञानावस्था का धर्म अस्तित्व, पुष्टि, जीने की आशा सहित सुख है ।
श्र धारणा की अनुकूल चेष्टा को स्फुरण अथवा क्रांति तथा इसकी प्रतिकूल चेष्टा की प्रतिक्रांति संज्ञा है । स्फुरण से समाधान तथा प्रतिक्रांति से समस्या है ।
श्र समाधान की ओर प्राप्त प्रेरणा की अनुकूल तथा समस्या की ओर प्राप्त विवशता की प्रतिकूल संज्ञा है ।
श्र आत्मा की प्रेरणा से संपन्न संकल्प, इच्छा, विचार और आशा स्व-सापेक्ष हैंं, स्फुरण है ।
श्र चैतन्य पक्ष की एकसूत्रता के अभाव से उत्पन्न संकल्प के नाम से इच्छा, आशा एवं विचार पर-सापेक्ष है, जो प्रतिक्रांति हैं ।
श्र स्व-सापेक्षता में विश्राम तथा पर-सापेक्षता में (जड़ पक्ष के साथ आसक्ति में) श्रम का प्रसव है ।
:: श्रम :- मानव इकाई की आशा और उपलब्धि के बीच में ऋणात्मक स्थितियाँ ही श्रम हैं तथा धनात्मक स्थितियाँ ही समाधान है ं ।
श्र मानव सुख धर्मी है । समाधान =सुख । समस्या =दु:ख ।
श्र मानव द्वारा प्राप्त कर्तव्यों का, सुख के पोषणवादी रीति व नीति का पालन करना ही धर्म नीति है ।
श्र मानव द्वारा सामाजिक एवं प्राकृतिक नियमों के अनुसार व्यवहार की “पोषणवादी रीति” तथा बौद्धिक नियमों के अनुसार विचार एवं आचरण की ‘व्यवहार नीति’ संज्ञा है ।