व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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★ व्यवहारिकता में रीति का पालन होते तो देखा जाता है, पर नीति का पालन होते हुये भी और नहीं होते हुए भी पाया जाता है ।

श्र नीतिपूर्ण विचार का अभाव ही शोषण का कारण है, जो अंततोगत्वा स्व-पर दु:ख कारक होता है ।

श्र परिवार, समाज तथा व्यवस्था दत्त भेद से कर्त्तव्य को स्वीकारने तथा इसे निष्ठा, नियम एवं सत्यतापूर्वक पालन करने पर ही मानव में विशेष प्रतिभा का विकास हर स्तर पर है अर्थात् पारिवारिक, सामाजिक तथा व्यवस्था के साथ सफलताऍँ इसके विपरीत स्थिति में प्राप्त प्रतिभा तथा सफलता भी निरस्त होती है ।

श्र दूसरे का प्रभाव परस्परता की आवश्यकता तथा अवस्था पर निर्भर करता है । आवश्यकता तथा अवस्था का प्रादुर्भाव जागृति क्रम के अनुसार है ।

श्र पदार्थ का विकास एवं उसकी अवस्था उस इकाई की गति, श्रम तथा परस्परता के दबाव पर निर्भर करती है जिससे संगठन, विघटन तथा परिणाम होता है ।

श्र संगठन एवं विघटन भेद से रूप, रूप भेद से विकास, विकास भेद से क्षमता, क्षमता भेद से माध्यम, माध्यम भेद से अवस्था, अवस्था भेद से आवश्यकता, आवश्यकता भेद से चेष्टा, चेष्टा भेद से प्रगति, प्रगति भेद से फल-परिणाम, फल-परिणाम भेद से योग व वियोग और योग व वियोग भेद से ही संगठन एवं विघटन और समाधान एवं समस्या है ।

ज्ञ जीवन को जागृति के लिए माध्यम के रूप में मानव शरीर उपलब्ध है ।

ज्ञ चार अवस्थाओं की सृष्टि का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है । इसमें पदार्थावस्था का धर्म अस्तित्व तथा ज्ञानावस्था में सुख धर्म सिद्ध हुआ है । अस्तित्व का अभाव किसी भी काल में नहीं है, ऐसा निरीक्षण, परीक्षण तथा सर्वेक्षण से सिद्ध हो चुका है । अस्तित्व की कल्पना पदार्थ के अभाव में सिद्ध नहीं होती । साथ ही पदार्थ के ससीमित होने के कारण इसकी सर्वव्यापकता भी सिद्ध नहीं होती ।

★ सुख एक वैचारिक तथ्य है । बुद्धि के अभाव में विचार तथा ज्ञान के अभाव में बुद्धि की क्रियाशीलता सिद्ध नहीं है । सुख, सृष्टि सहज सर्वोत्कृष्ट सृजन मानव इकाई का धर्म है । जहाँ कहीं भी पदार्थ नहीं है, वहाँ मानव को ले जाने पर भी सुखधर्मिता का अभाव मानव में नहीं पाया गया । इसलिए सुख का आधार ज्ञान सम्पन्नता सार्वदेशिक सिद्ध हुआ, क्योंकि जो नहीं है, उसकी उपलब्धि संभव नहीं है । इस प्रकार ज्ञान सर्व-व्यापक सिद्ध हुआ । ज्ञान ज्ञाता द्वारा ज्ञेय सहित मानव परम्परा में प्रमाणित होता है । सर्वमानव ज्ञाता होने योग्य हैं ही ।

श्र सहअस्तित्व में अनुभव ही पूर्ण ज्ञान है ।

★ इस प्रकार अस्तित्व तथा ज्ञान (व्यापक) का अभाव किसी देश-काल में संभव नहीं पाया जाता है तथा ज्ञान का अभाव किसी भी देश व काल में भी नहीं पाया जाता । ज्ञान सर्वदेश