व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र मानव द्वारा मानवीयता के प्रति कर्त्तव्य-बुुद्धि को अपनाये बिना जागृति, जागृति के बिना समाधान-समृद्धि, समाधान-समृद्धि के बिना मानवत्व-समत्व, मानवत्व-समत्व के बिना पूर्ण फल, पूर्ण फल केे बिना परंपरा में स्फुरण या प्रेरणा और स्फुरण या प्रेरणा के बिना कर्त्तव्य बुद्धि प्राप्त नहीे ं होती है ।

श्र मानवीयतापूर्ण बुद्धि द्वारा निश्चित कर्त्तव्य के परिपालन से मानव सफल एवं सुखी हुआ है ।

:: कारण :-चेष्टा को आशा, विचार, इच्छा व संकल्प पूर्वक कार्य चेष्टा में प्रवृत्त करने हेतु प्राप्त पृष्ठभूमि की कारण संज्ञा है ।

:: प्रभाव :-वातावरण, अध्ययन एवं अभ्यास पूर्वक पूर्ण संस्कार ही प्रभाव है ।

:: फल :- संस्कार का प्रभाव ही फल है ।

श्र मानव में अध्यास से वंशानुषंगिक शरीर संरचना तथा योग की घटना है । चैतन्य पक्ष में संस्कार मन, वृत्ति, चित्त एवं बुद्धि जागृत होने के रूप में उपलब्धि है, जो मानवीयता और अतिमानवीयता के रूप में परिलक्षित होती है । यह जागृत परंपरा की देन है ।

:: अध्यास :-अध्यास का तात्पर्य प्राणावस्था में कार्यरत प्राणकोशाओं में स्पष्ट रहता है । इसका स्वरूप प्राणसूत्रों में निहित रचना विधि है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - सात

मानवीय व्यवहार

श्र व्यवहार के लौकिक एवं पारलौकिक दो भेद हैं ।

श्र लौकिक व्यवहार ः- भ्रमित मानव में कार्य-व्यवहार चार विषयों में ग्रसित रहना पाया गया है । भ्रमित कार्य-व्यवहार प्रवृत्ति ही लोक आसक्ति है ।

:: विषय चतुष्टय :- आहार, निद्रा, भय और मैथुन ।

ज्ञ जागृत मानव में ऐषणा त्रय व्यवहार है । इसका तात्पर्य धरती पर व्यवस्था में भागीदारी, अनुभव मूलक विधि से जीना, आलोकित रहना, प्रकाशित रहने से है ।

:: ऐषणा त्रय :- पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा ।

श्र पारलौकिक व्यवहार :- अनुभव मूलक प्रमाण सहित जीना ।

ज्ञ ऐषणा मुक्त व्यवहार ।