व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र परिणामवादी फल की ओर की गई चेष्टा या प्रयास को ‘अपूर्ण प्रयास’ एवम् अपरिणामवादी फल की ओर अर्थात् क्रिया पूर्णता और आचरणपूर्णता के अर्थ में की गई चेष्टा या प्रयास को ‘पूर्ण प्रयास’ संज्ञा है ।
श्र नित्य एवम् शाश्वत् सत्ता में सत्य प्रतीति, सत्य प्रतीति से सत्य बोध व अनुभूति, सत्य बोध व अनुभूति से संतुलन, संतुलन से स्फुरण, स्फुरण से जागृति, जागृति से समाधान, समाधान से व्यवहार शुद्धि, व्यवहार शुद्धि से सहअस्तित्व, सहअस्तित्व से स्वर्गीयता, स्वर्गीयता से निर्विरोध भाव तथा निर्विरोध भाव से नित्य एवम् शाश्वत् सत्य बोध है ।
श्र आवश्यकता भेद से ही लक्ष्य भेद है, जिसमें (चैतन्य पक्ष की जागृति) पारलौकिक लक्ष्य से मानव जीवन सफल होता है, अन्यथा असफल ही है । विकृत विचार से मूलतः व्यवहारिक व्यवधान तथा सुसंस्कृत संस्कार से व्यवहार सुगमता पाई जाती है ।
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - नौ
दर्शन-दृश्य-दृष्टि
श्र दर्शन के लिये दर्शक, दृश्य और दृष्टि का रहना अनिवार्य है ।
श्र दर्शक की क्षमता, दृष्टि के परिमार्जन के योग से दृश्य के साथ दर्शन क्रिया है । जो जैसा है, उसको वैसा ही समझने की क्षमता, उसे वैसा ही देखने की प्रक्रिया के योग से दर्शन क्रिया है ।
श्र दर्शन के भेद से लक्ष्य भेद है, क्योंकि जो जैसा जिसका दर्शन करता है, उसके अनुसार उसके साथ जो अर्थ है, उसको लक्ष्य स्वीकारता है । यह मूल्यांकन क्रिया भ्रम और जागृति को स्पष्ट करता है ।
श्र वातावरण, अध्ययन, पूर्व संस्कारों के अनुबन्धानुक्रम विधि से दर्शन क्षमता, योग्यता एवम् पात्रता है । क्षमता, योग्यता एवम् पात्रता के अनुसार ही जागृति एवम् ह्रास की ओर गति है ।
श्र दृष्टि द्वारा प्राप्त समझ (व्यंजना पूर्वक/स्वीकृति) को दर्शन संज्ञा है ।
:: दर्शन :-न्याय-धर्म-सत्य सहज दृष्टि द्वारा की गई क्रिया-प्रक्रिया की दर्शन संज्ञा है ।
श्र प्राकृतिक एवम् मानवकृत भेद से वातावरण है ।
श्र दर्शन, विचार, शास्त्र, इतिहास एवम् काव्य भेद से अध्ययन है ।