व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
★ अतिमानवीयता पूर्ण मानव की दृष्टि, विषय और स्वभाव निम्नानुसार है ः-
श्र देव मानव दृष्टि- धर्म प्रधान न्याय और सत्य ।
विषय - लोकेषणा ।
स्वभाव - धीरता, वीरता, उदारता तथा दया प्रधान कृपा, करूणा ।
श्र दिव्य मानव दृष्टि-परम सत्य ।
विषय - सहअस्तित्व रूपी परम सत्य ।
स्वभाव - करुणा प्रधान दया, कृपा ।
★ उपरिवर्णित पाँच श्रेणी के मानव अपने से अविकसित पर निरीक्षण, परीक्षण एवं सर्वेक्षण पूर्वक व्यवहार एवं अधिकार करते हैं ।
:: अधिकार :- अपने सही मन्तव्य के अनुसार अन्य को गति एवं कला प्रदान करना और उसका उपयोग, सदुपयोग तथा पोषण करने की क्षमता, योग्यता एवं पात्रता होना ही अधिकार है ।
ज्ञ उपरोक्त विधि से जागृति पूर्वक ही मानव अखण्डता, सार्वभौमता सहज सूत्र व्याख्या सम्पन्न होता है क्योंकि विकसित द्वारा अविकसित को प्रेरित करने का अधिकार होता है जबकि अविकसित द्वारा विकसित का मात्र अध्ययन ही संभव है ।
★ उपरोक्तानुसार विवेचना के आधार पर ही इस वैविध्यता से पीड़ित संसार के मूल में प्रत्येक मानव अपना भी मूल्यांकन करना चाहता है, क्योंकि स्वयं का मूल्यांकन यदि सही नहीं है तो उस स्थिति में अध्ययन के लिये आवश्यक सामर्थ्य को संजो लेना संभव नहीं है - जैसे एक रूपया के मौलिकता को पूरा-पूरा समझे बिना दो एवं उसके आगे वाले संख्या की गति एवं प्रयोग नहीं है । एक रूपया के मूल्य को 1 से 99 पैसे तक मूल्यांकन करने की स्थिति पर्यन्त उस एक रूपया का पूर्ण मूल्यांकित ज्ञान उस इकाई में प्रादुर्भूत नहीं हुआ ।
ज्ञ अत: मानव को अपने विकास की दृष्टि से स्वयम् का मूल्यांकन करना प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण कार्यक्रम सिद्ध है । यही ज्ञानावस्था की विशिष्टता है ।
ज्ञ अध्ययन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता के अर्थ में ही संपन्न होता है । सर्वप्रथम व्यापक वस्तु में समाहित संपूर्ण एक-एक वस्तुओं का वर्गीकरण विधि से अध्ययन संभव हो गया है । यही चार अवस्था, चार पदों में अध्ययन गम्य है । क्रिया का अध्ययन विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति के रूप में बोधगम्य होने की व्यवस्था है । इसी के साथ-साथ रूप, गुण, स्वभाव व धर्म का अध्ययन होना आवश्यक है । चारों अवस्था, चारों पदों में स्पष्ट है । विकास का अध्ययन परमावश्यक है । विकसित इकाई के रूप में ‘जीवन’ का अध्ययन संपन्न होता है । और जीवन में ही जागृति क्रम, जागृति का स्पष्ट प्रमाण होता है ।