व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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:: ग्रहण :- उपयोगिता के मूल्यांकन की ग्रहण संज्ञा है ।

:: विसर्जन :- अनुपयोगिता की विसर्जन संज्ञा है ।

:: निग्रह :- स्वसंयमता के अर्थ में प्रवृत्ति ।

श्र आशाएँ आस्वादन के रूप में; विचार प्रसारण के रूप में; इच्छाएँ (काँक्षाएं) प्रयोग एवं व्यवहार के रूप मेें तथा ऋतम्भरा दृढ़ता एवं निष्ठा के रूप में व्यक्त है । यह क्रम से मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि से प्रदर्शित होने वाले गुण, स्वभाव सहित क्रिया पक्ष है अर्थात् मन से आशा, वृत्ति से विचार, चित्त से इच्छा (काँक्षा) और बुद्धि में अनुभव प्रमाण ऋतम्भरा क्रियाएँ हैं ।

श्र हर चैतन्य इकाई दृष्टि संपन्न है । जड़ परमाणु विकासपूर्वक चैतन्य (जीवन) परमाणु होते तक दृष्टि सम्पन्न नहीं है ।

श्र अपने दृष्टि के द्वारा दृश्य को देखने हेतु दर्शक द्वारा प्रयुक्त क्रिया एवं प्रक्रिया ही दर्शन है, जिसकी उपलब्धि अर्थात् दर्शन की उपलब्धि समझ या ज्ञान है । ज्ञान से ही स्व एवं परस्परता का निर्णय तथा अनुभव एवं अभिव्यक्ति है । जागृत मानव में स्वयं होने का बोध व संपूर्ण अस्तित्व होने का बोध होता है । यही स्व एवं परस्परता है ।

★ अपने वातावरण में स्थिति पूर्ण-अपूर्ण, रूप-गुण-स्वभाव-धर्म, योग-वियोग, क्रिया-प्रक्रिया, परिणाम-फल, ह्रास और विकास का संकेत ग्रहण दर्शन द्वारा ही दर्शक ने किया है ।

श्र चैतन्य इकाई स्वयं जीवन पुंज-मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि व आत्मा का अध्ययन है ।

ज्ञ इसके पूर्व अमानवीयता और अतिमानवीयता का वर्गीकरण स्वभावात्मक व व्यवहारात्मक भेद से किया जा चुका है । मानव जाति पाँच श्रेणियों में परिलक्षित है, जो निम्नानुसार हैं ः-

★ अमानवीय मानव के दो वर्ग हैं ः- (एक) पशु मानव और (दो) राक्षस मानव ।

श्र पशु मानव में दीनता प्रधान, हीनता एवं क्रू रता वादी कार्य व्यवहार होता है ।

श्र राक्षस मानव में क्रूरता प्रधान, दीनता एवं हीनतावादी कार्य व्यवहार होता है ।

★ (तीन) मानवीयतापूर्ण मानव एक वर्ग में है ।

मानवीय दृष्टि ः न्याय, धर्म, सत्य ।

मानवीय विषय ः पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा ।

मानवीय स्वभाव ः धीरता, वीरता, उदारता ।

★ अतिमानवीयतापूर्ण मानव पुन: दो वर्ग में है ः-

(चार) देव मानव और (पाँच) दिव्य मानव ।