व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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ऐसे विकासात्मक अध्ययन में मात्र तात्विकता का वर्णन बोधगम्य न होने के कारण (अनुमान करने योग्य स्वीकृति न होने के कारण) तर्क की सहायता आवश्यक है । यहाँ तर्क की आवश्यकता इसलिए प्रतीत होती है और नियोजित की गई है कि वांछित (जिसे सिद्ध करना है) की कल्पना पहले से साधक में (जिसे प्राप्त करना है) पूर्वाभ्यास रूप में प्रतिष्ठित करना है ।

सर्वप्रथम अध्ययन; द्वितीय स्थिति में प्रयोग व अभ्यास; तृतीय स्थिति में अनुभव, प्रमाण प्रमाणित होना ही उपलब्धि और सार्थकता है । विकास और जागृति संबंधी अध्ययन मानव कुल के लिए अथवा मानव कुल सुरक्षित रहने के लिए परमावश्यक है । सर्वमानव में समझदारी की प्यास है ही । यही पात्रता सर्वमानव में होने का प्रमाण है इसे तर्क संगत विधि से, अर्थ बोध सहित स्थिति सत्य, वस्तुस्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य को बोधगम्य, अध्ययनगम्य, फलत: अनुभव गम्यता को प्रमाणित करने की स्थिति समीचीन है, यही अध्ययन का तात्पर्य है ।

★ मानवीयता पूर्ण मानव व्यवस्था सहज रूप में होने के आधार पर निश्चयन और ध्रुवीकरण हुआ । मानवीयता पूर्ण मानव से कम विकसित पशु मानव व राक्षस मानव का व्यवस्था में जीना संभव नहीं हुआ, यह समीक्षित हो चुका है । मानव से श्रेष्ठ देव मानव व दिव्य मानव हैं, जो जागृति पूर्ण हैं । अनुभव प्रमाण के रूप में जागृत मानव परंपरा में सार्थक सिद्ध हुईं । जागृत परंपरा में मानवीयता पूर्ण कार्य-व्यवहार के रूप में स्पष्ट होता है, ‘अनुभव प्रमाण’ परिवार व्यवस्था और विश्व परिवार व्यवस्था में प्रमाणित होता है । यह परम आवश्यकता है ही । उक्त विधि से व्यवहार के सभी आयामों में मानवीयता को पहचानना, मूल्यांकित करना और व्यवस्था में मानवीयता सहित अनुभव प्रमाणों को पहचानना और प्रमाणित करना सहअस्तित्व दृष्टिकोण से संभव हो गया है ।

★ दिव्य मानव का विषय (प्रवृत्ति) परम सत्य रूपी सहअस्तित्व है ।

श्र 1. सत्ता सर्वत्र एक सा विद्यमान है ।

★ संपूर्ण अस्तित्व में जड़-चैतन्य प्रकृति कार्यकलाप सदा-सदा है ही । इससे ज्ञात होता है कि हर क्रिया के मूल में प्राप्त सत्ता हर स्थान में विद्यमान है । इसीलिए दिव्य मानव भी अनेक संख्या में होने की संभावना है ।

श्र 2. सत्ता सर्वत्र एक सा भासमान है ।

श्र 3. सत्ता सर्वत्र एक सा बोधगम्य है ।

★ इस पृथ्वी पर कहीं भी अर्थात् किसी स्थान पर भी स्थित मानव यदि दिव्य मानवीयता से संपन्न हो जाते हैं, उस स्थिति में उन सब में समान अनुभूति प्रमाणित होती है और वह अविकसित मानव के लिए समान रूप से प्रेरणा श्रोत होते हैं । इसी आधार पर सर्वमानव को सर्वत्र सहअस्तित्व समझ में आना अध्ययन विधि से स्पष्ट होता है ।

★ ज्ञानावस्था में पाये जाने वाले भ्रमित मानव के मन में चयन व आस्वादन क्रिया, वृत्ति में विश्लेषण क्रिया और तुलन क्रिया (प्रिय, हित, लाभ के अर्थ में) तथा चित्त में चित्रण क्रिया संपादित