व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र जीने की आशा में उद्भव, विभव एवं प्रलय समाविष्ट है । जीवावस्था के शरीर रचना, प्राणावस्था की रचना क्रिया है । इनमें विभव सबसे प्रिय है जो स्थायी नहीं है । भ्रमवश मानव विभव में ही बल, रूप, पद व धन के स्थायीकण के लिए प्रयास करता है, जो उसका स्थायी गुण न होने के कारण असफल है । उपरोक्तानुसार विभव काल की स्थिरता तथा इसमें की गई उपलब्धियों की स्थिरता सिद्ध नहीं होती । मानव का विभव जागृत परम्परा ही है ।
श्र आकृति को रूप, प्रभाव को गुण, वस्तुस्थिति को तत्व तथा किसी रूप, क्रिया, वस्तु व स्थान को निर्देश करने हेतु प्रयुक्त शब्द की ‘नाम’ संज्ञा है ।
श्र रूप एवं गुण सापेक्ष और सामयिक तथ्य है ।
:: सामयिक तथ्य ः- किसी क्रिया या क्रिया समुच्चय का परिणाम भावी है, उसकी सामयिक तथ्य संज्ञा है ।
श्र समस्त तत्व निरपेक्ष में संपृक्त कार्यरत है ।
श्र भाषा के मूल में भाव; भाव के मूल में मौलिकता; मौलिकता के मूल में मूल्यांकन; मूल्यांकन के मूल में दर्शन; दर्शन के मूल में दर्शक; दर्शक के मूल में क्षमता, योग्यता एवं पात्रता; क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के मूल में सत्य भास, आभास, प्रतीति; भास, आभास, प्रतीति के मूल में भाषा है । यह सब चित की क्रिया है जो दर्शक के जागृति के अनुसार सफल है अथवा असफल है ।
श्र पदार्थावस्था एवं प्राणावस्था की सृष्टि मेधस रहित तथा जीवावस्था व ज्ञानावस्था की सृष्टि मेधस सम्पन्न है ।
:: मेधस :- चैतन्य इकाई की इच्छाओें एवं आकाँक्षाओं के संकेत को ग्रहण करने योग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता सहित सप्राण अंग ही मेधस है, जिसकी अवस्थिति साम्यत: मानव के शिरोभाग में पाई जाती है ।
श्र ‘जीवन पुंजस्थ’ आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा तथा प्रमाणिकता (प्रमाण) का प्रसारण (संकेत ग्रहण) मेधस पर ही है, जिसके अनन्तर ही ज्ञानवाही एवं क्रियावाही प्रक्रियाएँ हर मानव शरीर में पाई जाती है जो मानव परंपरा में परावर्तित होता है ।
:: पुंज :- चैतन्य इकाई सहज कार्य सीमा सहित जो आकार है, उसे पुंज की संज्ञा है । ऐसे पुंज के मूल में एक ही गठनपूर्ण परमाणु का अस्तित्व है जिसमें ही आत्मा, बुद्धि, चित्त, वृत्ति तथा मन की क्रियाएँ दृष्टव्य हैं ।
:: प्रसारण :- आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा एवं प्रमाणिकता सहज प्रमाणों के संकेत से मेधस तंत्र पर प्रभाव डालने हेतु प्रयुक्त तरंग की प्रसारण (संकेत ग्रहण) संज्ञा है, जिसमें प्रत्याशा का होना आवश्यक है ।
श्र ग्रहण, विसर्जन, निग्रह, अनुग्रह, संग्रह एवं उदारता के भेद से ही समस्त सुखाकाँक्षाएं हैं ।