व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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★ गठनशील परमाणुओं में श्रम, गति एवं परिणाम घटित होता ही रहता है । परिणाम के अमरत्व के फलस्वरूप चैतन्य इकाई रूपी ‘जीवन’ में विश्रामानुभूति योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता पर्यन्त श्रम का अभाव नहीं है ।

श्र पदार्थावस्था में सभी प्रजाति के परमाणु के अंतिम परिवेशीय अंश ही श्रम पूर्वक सक्रिय रहते हैं अथवा अग्रेषण क्रिया में रत हैं ।

:: क्षोभ :- क्षमता एवं योग्यता को श्रम में परिवर्तित करने पर जो ह्रास है उसकी क्षोभ संज्ञा है । यही पात्रता की अपूर्णता है ।

:: अग्रेषण :- क्षमता एवं योग्यता को श्रम में परिवर्तित करने में जो संतुलन अथवा पात्रता का अर्जन है उसकी अग्रेषण संज्ञा है ।

श्र जड़ परमाणुओं में अंतिम एवं उसके पहले परिवेशीय अंश ही सक्रिय होकर श्रम पूर्वक यौगिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं । अग्रिम रचना प्राणावस्था के लिये अग्रेषित रहते हैं ।

श्र जीवावस्था में शरीर रचनाएँ प्राण कोषा से ही रचित है और जीवन में वंशानुषंगी कार्य प्रवृत्ति रहती है । चैतन्य परमाणु (जीवावस्था) में चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय परिवेशों के अंश आंशिक रूप में सक्रिय रहते हैं और इससे श्रेष्ठ अभिव्यक्ति के लिए अग्रेषित रहते हैं ।

श्र ज्ञानावस्था में भी शरीर रचना प्राण कोषाओं से ही है और जीवन जागृति क्र म में चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय परिवेशों के क्रियाशीलता विधि से साढ़े चार (4ग्) क्रियाओं को शरीर मूलक विधि से व्यक्त करता है ।

श्र जागृति पूर्वक अनुभव मूलक विधि से पूरे दस क्रियाओं को प्रमाणित करता है । मानव शरीर रचना मानव परंपरा में ‘जीवन’ में होने वाली दसों क्रियाओं को प्रमाणित करने योग्य रहता है ।

श्र ज्ञानावस्था में ईष्ट सेवन का लक्ष्य ईष्ट से तादात्म्य, तद्रूप, तत्सान्निध्य एवं तदावलोकन है । ईष्ट के नाम रूप, गुण एवं स्वभाव तथा साधक की क्षमता, योग्यता तथा पात्रता के अनुपात में सफल होती है ।

:: ईष्ट :- निर्भ्रान्त ज्ञान सहित स्वेच्छापूर्वक सहअस्तित्व के प्रति श्रद्धा, विश्वास एवं निष्ठा ही ईष्ट है ।

:: तादात्म्य, तद्रूप :- जागृति ही परम उपलब्धि होने के कारण तद्रूप, अनुभव बोध से तादात्म्य होना जीवन सहज तथा अनुभव सहज क्रिया है । सहअस्तित्व में अनुभव ही तद्रूप, तदाकार विधि है । क्योंकि नियम, नियन्त्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य, अनुभव के फलन में प्रमाणित होता है ।

:: तत्सान्निध्य :- तत्सान्निध्य का अर्थ सुख, शांति, संतोष, आनंद का सान्निध्य है ।

:: तदावलोकन :- सहअस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा ही तदावलोकन क्रिया है । सहअस्तित्व का दृष्टा जागृत जीवन ही है ।