व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
:: जड़ :- विचार पक्ष से रहित इकाई, जिसका कार्य क्षेत्र उसके लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई तक ही सीमित है ।
:: चैतन्य :- जिस इकाई का कार्य क्षेत्र उसकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई से अधिक हो तथा जिसका विचार पक्ष सक्रिय हो ऐसी इकाई की चैतन्य संज्ञा है ।
श्र ऐसी विशेष सक्रियता प्राप्त होते ही वह इकाई आशा के बंधन से युक्त हो जाती है । प्रमाण हर जीव में जीने की आशा है ही ।
श्र जड़ एवं चैतन्य इकाईयों में गठन सिद्धांत में साम्यता पाई जाती है ।
श्र आत्मा में अनुभूति; बुद्धि में उल्लास व आप्लावन; चित्त में आह्लाद; वृत्ति में उत्साह तथा मन में कौतूहल ही विकास की ओर सक्रिय होने की मूलभूत ऊर्जा नियोजन रीति है । इसके लिए ऊर्जा का अन्तर नियामन आवश्यक है ।
:: अनुभूति :- अनुक्रम से प्राप्त समझ, स्थिति-गति, प्रकटन व परिणाम ही अनुभूति है ।
:: आप्लावन :- निर्भ्रमता के प्रभाव की आप्लावन संज्ञा है । बुद्धि ही निर्भ्रमता को प्राप्त कर आप्लावित होती है ।
:: आह्लाद :- अभाव का अभाव ही आह्लाद है । चित्त में ही अभाव के अभाव की प्रतीति होकर आह्लाद होता है ।
:: उत्साह :- उत्थान या विकास की ओर जो साहस है, उसकी उत्साह संज्ञा है तथा यह वृत्ति में होता है ।
:: कौतूहल :- अज्ञात को ज्ञात करने, अप्राप्त को प्राप्त करने हेतु संवेग की क्रिया कौतूहल है । जो मन में होता है ।
★ प्रत्येक परमाणु में परमाणु अंशों की अवस्थिति मध्य में तथा परिवेशों में पायी जाती है । प्रथम परिवेश में एक या एक से अधिक अंश, उसी प्रकार द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ आदि परिवेश में भी एक या एक से अधिक अंशों को पाया जाता है, जो मध्यांश के सभी ओर अविरत रूप से भ्रमणशील है । प्रत्येक परमाणु के सभी ओर तथा परमाणु के गठन में पाए जाने वाले अंशों के सभी ओर शून्य की स्थिति पाई जाती है । शून्य से रिक्त व मुक्त स्थान या वस्तु नहीं है ।
श्र चैतन्य इकाई (गठनपूर्ण परमाणु) के मध्यांश को आत्मा, उसके प्रथम परिवेशीय अंशों को बुद्धि, द्वितीय परिवेशीय अंशों को चित्त, तृतीय परिवेशीय अंशों को वृत्ति तथा चतुर्थ परिवेशीय अंशों कीे मन संज्ञा है ।
★ इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष रूप में सृष्टि चार अवस्था में हैं । इन चारोें अवस्थाओं में परमाणुओं का मध्यांश मध्यस्थ क्रिया है, क्योंकि उस पर सम या विषम का प्रभाव नहीं पड़ता है ।