व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
विकसित होकर चैतन्य प्रकृति (जीवन) के रूप में संक्रमित है । चैतन्य प्रकृति का मूल रूप गठनपूर्ण परमाणु है ।
ज्ञ मानव में बौद्धिक तथा भौतिक दोनों पक्षों का सम्मिलित रूप व्यवहार में पाया जाता है तथा शरीर के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली सभी क्रियाओं में यह दोनों अर्थात् बौद्धिक और भौतिक क्रियाएँ सम्मिलित पाई जाती हैं ।
ज्ञ भौतिक पक्ष से तात्पर्य शरीर तथा उसके द्वारा की गई उत्पादन क्रियाएँ हैं । बौद्धिक पक्ष से तात्पर्य आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा व प्रामाणिकता ज्ञान, विवेक, विज्ञान एवं इससे संबंधित प्रक्रिया है ।
:: आशा :- आश्रयपूर्वक की गयी अपेक्षा की आशा संज्ञा है । शरीर के आश्रय पद्धति से और अनुभव के आश्रय पद्धति से आशयों का होना पाया जाता है ।
:: विचार :- विश्लेषण पूर्वक किया गया स्वीकृतियाँ जो समाधान के अर्थ में प्रयोजन है ।
:: इच्छा :- आकार-प्रकार, प्रयोजन एवं संभावना का चित्र ग्रहण एवं निर्माण करने तथा गुणों का गतिपूर्वक नियोजन करने वाली क्रिया की इच्छा संज्ञा है । जीवन शक्तियाँ गुण, स्वभाव, धर्म (समाधान) के रूप में व्याख्यायित होती हैं ।
:: ऋतम्भरा :- सत्य सहज वैभव की अभिव्यक्ति करने की संपूर्ण पृष्ठभूमि । सत्य से परिपूर्ण संकल्प ।
:: संकल्प :- सम्यक प्रकार से की गयी स्वीकृति (जिसको स्वीकार करना है उसकी निर्भ्रमता) को निरंतरता प्रदान करने वाली बौद्धिक क्रिया ।
★ मानव ने सृष्टि में अपने महत्व को जानने और पहचानने के क्रम में हर इकाई के गठन, क्रिया और आचरण का अध्ययन करने का प्रयास किया है । साथ ही पूर्णता के लिए प्रयास एवं अभ्यास भी किया है ।
श्र उपरोक्त अध्ययन के क्रम में यह अनुभव में आया कि मूल इकाई जड़ परमाणु ही है, जिसने विकास पूर्वक चैतन्यता को प्राप्त किया है, जो गठनपूर्णता का प्रमाण है । गठनपूर्णता के पश्चात् क्रियापूर्णता के लिए प्रयास है ।
:: गठन :- एक से अधिक अंश के पहचानने-निर्वाह करने के नियम द्वारा अनुशासित एवं सीमाबद्ध निश्चित क्रिया को अक्षुण्णता प्रदान करने वाली प्रक्रिया ही गठन है ।
:: आचरण :- जिस क्रिया से मौलिकता का प्रकाशन होता है, उसकी आचरण संज्ञा है, आचरण ही स्वभाव है । यही नियम है ।