व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

Back to Books
Page 26

(1) धर्मनैतिक व्यवस्था और (2) राज्यनैतिक व्यवस्था ।

श्र सामाजिकता के संरक्षण के लिये दोनों व्यवस्थाओं का परस्पर पूरक होना अत्यावश्यक है ।

श्र जागृत मानव परंपरा में हर परिवार में प्राप्त अर्थ का सदुपयोग धर्मनीति के रूप में तथा सुरक्षा राज्यनीति के रूप में प्रमाणित होता है । यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का आधार है ।

★ इस प्रकार धर्मनैतिक व्यवस्था तथा राज्यनैतिक व्यवस्था का क्षेत्र बिल्कुल ही स्पष्ट है । जब यह दोनों व्यवस्थाएँ एक दूसरे की पोषक अथवा पूरक न होकर, एक दूसरे की शोषक या एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगती है तभी सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है और अमानवीयतावादी विचार एवं व्यवहार को पुष्टि मिलती है । विकल्प के रुप में मानवीयता की आवश्यकता उदय होती है ।

श्र अर्थ की सुरक्षा के लिए विधि एवं व्यवस्था पक्ष है । विधि आचरण में एवं व्यवस्था परस्परता में स्पष्ट है ।

ज्ञ विधि पक्ष की उपादेयता विवेक सम्मत वैयक्तिक एवं अखण्ड समाज अर्थ का पोषण, सद्व्यय परस्परता में तृप्ति के रूप में प्रमाणित होती है । उपरोक्तानुसार व्यवस्था की उपादेयता विधि के आशय को कार्यरूप प्रदान करने हेतु समझदार परंपरा को स्थापित करना है । विधि पक्ष का वैभव जागृत परंपरा में प्रमाणित होता है ।

श्र संपूर्ण सृष्टि जड़ एवं चैतन्य भेद से परिलक्षित है ।

★ चैतन्य पक्ष के अभाव में शरीर द्वारा किसी भी क्रिया का संपादन संभव नहीं है । मानव चैतन्य सृष्टि की विकसित इकाई है ।

श्र चेतना (ज्ञान) व्यापक है । चेतना पारगामी व पारदर्शी है, क्रिया शून्य है (तरंग व दबाव मुक्त है ।) चेतना व्यापक होने के कारण इकाई सिद्ध नहीं होती । चेतना सृष्टि के उत्पत्ति का मूल कारण सिद्ध नहीं होती क्योंकि चेतना परिणाम रहित है । सहअस्तित्व ही सृष्टि का मूल कारण है । चेतना में सम्पृक्त प्रकृति में ही समस्त परिणाम है । साम्य ऊर्जा मानव में, से, के लिए चेतना रुप में है ।

समस्त जड़-चैतन्य वस्तु ऊर्जा संपन्न रहने के लिए चेतना ही मूल कारण है । फलस्वरूप पदार्थ में क्रियाशील श्रम, गति, परिणाम पूर्वक विकासक्रम में सृष्टि बीज अर्थात् जीव-जगत (मानवेतर प्रकृति) के रूप में स्पष्ट हो चुकी है । इससे पदार्थ जगत में जीव-जगत का बीज रूप और फल रूप होना स्पष्ट हुआ । इसी के साथ मानव जीवन में जागृति बीज होना सुस्पष्ट हुआ, क्योंकि हर मानव जागृत होना चाहता है । यही सहअस्तित्व का प्रमाण है ।

ज्ञ सृष्टि की समस्त इकाईयाँ अपने पात्रता के अनुसार चेतना में प्रभावित है । इस प्रभाव का फल ही इकाईयों की अक्षुण्ण चेष्टा है । चेष्टा ही क्रिया के मूल में है और यही श्रम, गति और परिणाम का कारण है । श्रम, गति, परिणाम स्वरूप ही जड़ प्रकृति विकास क्रम में है और