व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
ज्ञ प्रत्येक मानव प्राप्त अर्थ की सुरक्षा एवं सदुपयोग चाहता है ।
श्र अपने-अपने योग्यता, क्षमता एवं पात्रता अनुसार प्रत्येक भ्रमित मानव ने प्राप्त अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा की कामना से वैयक्तिक नीति निर्धारण किया जिससे मतभेद उत्पन्न हुआ । फलस्वरूप मानव ने सार्वभौम सिद्धांतपूर्ण व्यवस्था के संबंध में अन्वेषण किया जिससे एक मौलिक सिद्धांत उपस्थित हुआ, जो निम्नानुसार है :-
श्र “मानव सही में एक तथा गलती में अनेक है ।”
श्र सिद्धांत ही नियति, नियति ही नियम, नियम ही विज्ञान एवं विवेक, विज्ञान एवं विवेक ही ज्ञान तथा ज्ञान ही सिद्धांत है ।
:: सिद्धांत :- नियम, प्रक्रिया एवं उपलब्धि जिस समय भाषा के रूप में अवतरित होता है, उसे सिद्धांत कहते हैं । प्रक्रिया कार्य-व्यवहार के रूप में है जिसका फल-परिणाम फलित होता है ।
:: नियम :- क्रिया के संरक्षण एवं अनुशासन रीति ही नियम है ।
श्र मानवीयता के संरक्षण हेतु ही मानव सामाजिकता यथा मानवीयतापूर्ण संस्कृति, सभ्यता, विधि और व्यवस्था का अध्ययन, प्रयोग एवं पालन करना चाहता है, चूंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं ।
श्र विज्ञान एवं विवेकपूर्ण विचार, व्यवहार, अध्ययन, अध्यापन, उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग, वितरण, प्रचार, विधि एवं व्यवस्था ही मानवीयता के संरक्षण के लिए मानव द्वारा अनुभूत संपूर्ण कार्यक्रम है ।
:: विचार :- प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म तथा सत्यासत्य तुलनात्मक वृत्ति की क्रिया के फलस्वरूप निश्चित विश्लेषण ही विचार है ।
:: अध्ययन :- अधिष्ठान अर्थात् आत्मा की साक्षी और अनुभव की रौशनी में स्मरण सहित किये गये क्रिया, प्रक्रिया एवं प्रयास ही अध्ययन है ।
:- अधिष्ठान की साक्षी में बुद्धि द्वारा बोध पूर्वक स्मरण सहित की गयी स्वीकृति की अध्ययन संज्ञा है ।
:: अध्यापन :- अनुभव मूलक विधि से अधिष्ठान की साक्षी में बोध और साक्षात्कार पूर्वक स्मरण सहित ग्रहण कराने योग्य सत्यतापूर्वक क्रियाओं को बोधगम्य बनाने योग्य प्रक्रिया ही अध्यापन है ।
:: प्रचार एवं प्रदर्शन :- इच्छित वस्तु की सामान्य जन-जाति के मन-बुद्धि में अवगाहन कराने हेतु प्रस्तुत प्रक्रिया के भाषात्मक प्रयोग ही प्रचार है तथा कला एवं भाषा सहित प्रयुक्त प्रयास ही प्रदर्शन है ।