व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र विश्राम ही दु:ख का उन्मूलन तथा भ्रम से मुक्ति ही मोक्ष है ।

श्र सृष्टि का चरम लक्ष्य विश्राम है, इसका प्रमाण जागृत मानव परम्परा ही है । इसलिए हर भ्रमित मानव भी विश्राम के लिए व्याकुल रहता है । समाधान ही विश्राम है । यही अभ्युदय है ।

:: सह-अस्तित्व में चारों अवस्थाओं और चारों पदों का अपने-अपने लक्ष्य के लिए किया जाने वाला क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण सृष्टि है ।

श्र मानवेतर जीवों में जो ज्ञान उपयोग में आया है, उसे सामान्य ज्ञान संज्ञा है । मानव द्वारा जो व्यवहृत है, वह दो वर्ग में परिलक्षित है :-

(1) ज्ञान सम्मत विवेक और (2) विज्ञान ।

श्र विवेक और विज्ञान सम्पन्न होने के कारण ही मानव ने विश्राम को पहचाना है तथा इसके लिए समुचित प्रयोग भी किया है, जो सृष्टि के श्रम का उद्देश्य एवं फल भी है ।

श्र भ्रमित मानव कर्म करते समय में स्वतंत्र तथा फल भोगते समय में परतंत्र है, जबकि पशु कर्म करते समय भी और फल भोगते समय भी परतंत्र है । जागृत मानव कर्म करते समय स्वतंत्र तथा फल भोगते समय भी स्वतंत्र है ।

श्र कर्म की स्वतंत्रता के फलस्वरूप ही मानव को जितना उन्नतावकाश है, उतना ही अवनतावकाश भी है । फलत: मानव ने सामान्यत: क्रमश: विषयों, ऐषाणाओं तथा मोक्ष के द्वारा विश्राम पाने का प्रयास किया है । मोक्ष का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान है, यही भ्रम मुक्ति है । इसे प्रमाणित करना ही जागृति है ।

★ पूर्व में वर्णित किया जा चुका है कि विकसित इकाई में अविकसित इकाई के अथवा विकसित सृष्टि में अविकसित सृष्टि के सभी गुण, स्वभाव एवं धर्म विलय रुप में रहते ही हैं । तदनुसार मानव गलती करने का अधिकार लेकर तथा सही करने का अवसर एवं साधन लेकर जन्मता है । क्योंकि परम्परा में हर मानव, मानव चेतना को पाया नहीं इसलिए सन् 2000 तक जीव चेतना में जीया और जीव चेतना में गलती करता ही है । उदाहरणार्थ :-

एक अध्यापक कक्षा में गणित पढ़ाता है । अध्यापक सही ही पढ़ाता है और सबको समान रूप से संबोधित भी करता है, फिर भी विद्यार्थी गलती करते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि बालक के मन में भ्रमवश गलती करने की प्रवृत्ति है ही । इसी के साथ यह भी सिद्ध होता है कि मानवीय वातावरण व अध्यापन अर्थात् अध्यापक के बोध कराने की क्षमता के आधार पर वही विद्यार्थी पुन: सही करने में भी समर्थ होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि वातावरण तथा अध्ययन प्रत्येक मानव को एक अवसर व आवश्यकता के रूप में मौलिकत: प्राप्त है एवं जीव चेतना में जीते हुए सही करने की प्रवृत्ति का साक्ष्य है ।

श्र मानव ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही उत्पादन कार्य एवं प्रयोग किया है । उत्पादन एवं प्रयोग का फल ही अर्थोपार्जन है ।