व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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★ वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा तथा समाधान से प्राप्त तृप्ति की बौद्धिक तृप्ति संज्ञा है जो दीर्घकालीन या दीर्घ परिणामी होती है ।

च ज्ञानानुभूति तथा पूर्ण विश्राम की आध्यात्मिक तृप्ति संज्ञा है जो अपरिणामी अथवा नित्य है ।

:: वित्तेषणा :- सदुपयोग के अर्थ में न्याय दृष्टि पूर्वक धन बल कामना ही वित्तेषणा है ।

:- धन ः आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरगमन, दूरदर्शन संबंधी वस्तुएँ ।

:: पुत्रेषणा :- परिवार एवं समाज व्यवस्था के अर्थ में जन-बल कामना एवं वंश वृद्धि में विश्वास की पुत्रेषणा संज्ञा है ।

:: लोकेषणा :- अखण्ड समाज व्यवस्था के अर्थ में न्याय, धर्म दृष्टि पूर्वक यश-बल कामना ही लोकेषणा है ।

:: समाधान:- कैसे और क्यों की पूर्ति (उत्तर) ही समाधान है ।

:: विश्राम :- जिसमेेंं श्रम नहीं समाधान है, जिसके द्वारा श्रम नहीं होता है वह अनुभूति ही विश्राम है ।

★ इच्छानुसार द्रवित होने वाले अंग को इन्द्रिय, बोध करने-कराने वाले अंग को बुद्धि, सहअस्तित्व में अनुभूति अंग आत्मा, समस्त आत्माओं के आधारभूत सत्ता की अध्यात्म व परमात्मा संज्ञा है ।

ज्ञ आवश्यकता तथा उपयोगिता का निर्णय उपरोक्त तीन तृप्तिकारक अथवा सुखकारक लक्ष्य भेद से निर्णय किया जाता है ।

श्र ऐन्द्रिक तृप्ति क्षणिक, बौद्धिक तृप्ति दीर्घ परिणामी तथा आध्यात्मिक (अनुभव) तृप्ति नित्य अथवा अपरिणामी सिद्ध होती है ।

श्र प्रियाप्रिय, विषय सापेक्ष; हिताहित, शरीर सापेक्ष; लाभालाभ, वस्तु व सेवा सापेक्ष; न्यायान्याय, व्यवहार सापेक्ष; धर्माधर्म, समाधान सापेक्ष तथा सत्यासत्य, अस्तित्व में अनुभव सापेक्ष पद्धति से स्पष्ट होता है ।

★ प्रिय विषय प्राप्त होने पर इन्द्रिय तृप्ति होती है । अप्रिय विषय प्राप्त होने पर इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होती है ।

★ हृदय के तृप्त होने पर हित तथा स्वास्थ्य लाभ होता है । हृदय के अतृप्त रहने पर अहित तथा स्वास्थ्य का लाभ नहीं होता है ।