व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
:: स्वार्थ :- सीमित एवं संकीर्ण अर्थ नियोजन योजना की स्वार्थ संज्ञा है । जो एक मानव अथवा परिवार तक ही सीमित रहती है अथवा वैयक्तिक या पारिवारिक इन्द्रिय सुख-सुविधा के लिये जो विचार एवं व्यवहार है वह स्वार्थ है ।
:: परार्थ :- दूसरों की सुख सुविधा के लिये जो विचार एवं व्यवहार और इसकी पूर्ति के लिये अर्थ नियोजन की प्राथमिकता ही परार्थ है ।
:: परमार्थ :- जिस विचार एवं व्यवहार में समाधान सहित सर्वशुभ की उपलब्धि हो और समस्या का निराकरण हो और स्नेह का ही संबंध हो, इसे सर्व सुलभ कराने के लिये जो अर्थ नियोजन है, उसकी परमार्थ संज्ञा है ।
ज्ञ उपरोक्त नियम ही विभिन्न प्रकार की गठित सामाजिक इकाईयों के लिये भी लागू होगा । जिससे विभिन्नता समाप्त होकर, मानवीयता स्थापित होेगी ।
★ अर्थ मात्र तीन ही हैं :- मन, तन, धन ।
श्र बौद्धिक प्रयोग एवं प्रयास से बौद्धिक समाधान तथा भौतिक प्रयोग, प्रयास एवं उत्पादन से भौतिक समृद्धि की उपलब्धि होती है । बौद्धिक समाधान और भौतिक समृद्धि सामाजिकता के विकास के लिये सहायक है ।
★ भौतिक समृद्धि के लिये प्राकृतिक वैभव का उपयोग एवं सदुपयोग अनिवार्य है । खनिज, वनस्पति और पशु-पक्षी प्राकृतिक वैभव है ।
★ प्राकृतिक वैभव के उपयोग और सदुपयोग के लिये श्रम रूपी अर्थ का नियोजन आवश्यक है ।
ज्ञ अर्थ :- तन, मन एवं धन का नियोजन, मानवीय तथा अतिमानवीय भेद से प्रयुक्त करने से सामाजिकता का विकास है ।
श्र अमानवीय समुदायों के गठन के मूल में भ्रमित मानवों व बलवान जीवों अर्थात् क्रूरता का भय है ।
★ इसी प्रकार मानव समुदाय गठन के मूल मेें प्राकृतिक भय, पाशवीय भय तथा मानव में निहित अमानवीयता के भय से मुक्त होना लक्ष्य है ।
श्र मानव मात्र द्वारा समस्त प्रयास एवं प्रयोग तृप्ति अथवा सुख के लिये है ।
श्र ऐन्द्रिय (भौतिक), बौद्धिक (वैचारिक) एवं आध्यात्मिक(अनुभूति) भेद से तृप्तियाँ अथवा सुख है ।
★ शॅब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धेन्द्रियों द्वारा आहार, निद्रा, भय और मैथुन से होने वाली सभी तृप्तियाँ ऐन्द्रिय है जो सामयिक होती है ।