व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र जीवावस्था + श्रम = भ्रमित ज्ञानावस्था ।

श्र भ्रमित ज्ञानावस्था + श्रम = विश्राम अर्थात् सहअस्तित्व में अनुभूति ।

:: श्रम ः- श्रम का तात्पर्य अधिक उन्नत अर्थात् यथास्थिति से अधिक उन्नत यथास्थिति से है । ऐसी यथास्थिति विकास क्रम, जो कि भौतिक -रासायनिक वस्तुओं के रूप में है । विकास चैतन्य पद अथवा जीवन पद के रूप में अध्ययन सुलभ है । ऐसे जीवन जागृति क्रम, जागृति के रूप मेें अध्ययन, बोध व अनुभवगम्य है । अनुभवगम्य का अर्थ व्यवहार परम्परा में प्रमाणित होने से है ।

★ श्रम के क्षोभ के बराबर ही विश्राम की तृषा है क्योंकि ज्ञानावस्था में ‘समस्त श्रम’ विश्राम सहज गन्तव्य, यथास्थिति और उसकी निरंतरता के लिये है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - चार

मानव सहज प्रयोजन

श्र विश्राम के लिये ही इस पृथ्वी पर मानव अपने महत्व को जानने, पहचानने के प्रयास एवं प्रयोग में व्यस्त है ।

श्र एक से अधिक मानव एकत्र या संगठित होने को परिवार, समुदाय व अखण्ड समाज संज्ञा है । जागृत मानव परम्परा में सार्वभौम व्यवस्था पूर्वक अखण्ड समाज प्रमाणित होता है ।

श्र संगठन के लिए कारण साम्यता लक्ष्य साम्यता आवश्यक है । इसके निर्वाह के लिए कार्यक्रम साम्यता भी आवश्यक है ।

★ अकेले में मानव के जीवन मेंं कोई कार्यक्रम, व्यवहार एवं उत्पादन सिद्ध नहीं होता है । इस पृथ्वी पर मानव अधिकतम विकसित इकाई है । इससे विकसित इकाई इस पृथ्वी पर परिलक्षित नहीं है। मानव इसीलिए विकसित इकाई सिद्ध हुआ है, क्योंकि :-

1. वह मानवेतर सृष्टि के उपयोग, सदुपयोग, शोषण एवं पोषण में सक्षम है ।

2. मानव तथा मानवेतर तीनों सृष्टि में पाए जाने वाले गुण, स्वभाव एवं धर्म का ज्ञाता मानव ही है ।

3. मानवेत्तर सृष्टि में न पाये जाने वाले स्वभाव, व्यवहार एवं अनुभूति को मानव में पाया जाता है ।

श्र सामाजिकता से आवश्यकता; आवश्यकता से प्रयोग एवं उत्पादन; प्रयोग एवं उत्पादन से अर्थोपार्जन; अर्थोपार्जन से उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनशीलता; उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनशीलता से