व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
★ यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि उच्च कोटि की सृष्टि में निम्न कोटि की सृष्टि समाहित रहती है ।
श्र समस्त पदार्थ संगठन-विघटन एवं विघटन-संगठन क्रिया में अविरत गति से व्यस्त रहते हुये भौतिक एवं रासायनिक परिणाम को प्राप्त होते हैं ।
★ प्राणावस्था की समस्त इकाईयाँ, पदार्थावस्था की सभी क्रियाओं सहित सप्राण, निष्प्राण, आरोह अथवा अवरोह क्रिया में अवस्थित होकर अथवा सारक-मारक स्वभाव सहित क्रिया में अभिव्यक्तहैं ।
:: सारक :- प्राणपोषक वनस्पति कीे सारक संज्ञा है ।
:: मारक :- प्राणशोषक वनस्पति की मारक संज्ञा है ।
★ जीवावस्था की संपूर्ण शरीर रचना में पदार्थावस्था तथा प्राणावस्था की क्रियाएं समाहित हैं । यही उद्भव, विभव एवं प्रलय के रूप में स्पष्ट हैं । जीवावस्था में ‘जीवन’ आहार, निद्रा, भय और मैथुन युक्त विषयों में आसक्त होकर रत है । जीवावस्था का स्वभाव क्रूर-अक्रूर है ।
श्र ज्ञानावस्था की इकाईयों को, ऊपरवर्णित तीनों अवस्थाओं की क्रिया, स्वभाव, विषय तथा दृष्टि सहित वित्तेषणा, पुत्रेषणा एवं लोकेषणा से युक्त व्यवहार करते हुए धीरता, वीरता एवं उदारता पूर्ण आचरण के द्वारा ज्ञान, विवेक एवं विज्ञान का अध्ययन और प्रयोग का अवसर प्राप्त है जिसकी परिणति पूर्णता व अपूर्णता के आधार पर ही मानवीय या अमानवीय दृष्टि है ।
:: धीरता :- न्याय के प्रति निष्ठा एवं दृढ़ता ही धीरता है ।
:: वीरता :- दूसरों को न्याय उपलब्ध कराने में अपने बौद्धिक एवं भौतिक शक्तियों को नियोजित करने की प्रवृत्ति ही वीरता है ।
:: उदारता :- अपनी सुख सुविधाओं को अर्थात् तन, मन, धन को प्रसन्नता पूर्वक दूसरों के लिए उपयोगिता, सद्उपयोगिता विधि से नियोजित करने की प्रवृत्ति ही उदारता है ।
ज्ञ ज्ञान, विवेक एवं विज्ञान के अध्ययन एवं प्रयोग क्रम में ही मानव भ्रांत, भ्रान्ताभ्रान्त तथा निर्भ्रान्त स्थिति में स्पष्ट होता है ।
श्र सृष्टि में क्रिया अनन्त है एवं व्यापक सत्ता में सम्पूर्ण सृष्टि संपृक्त है ।
★ प्रेरित होने के फलस्वरूप ही समस्त पदार्थ श्रम में रत है । श्रम के बिना कार्य कलाप फल परिणाम में ह्रास एवं विकास सिद्ध नहीं होता ।
इसीलिए:-
श्र पदार्थावस्था + श्रम = प्राणावस्था ।
श्र प्राणावस्था + श्रम = जीवावस्था ।