व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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★ जागृत मानव में पाँच कोषों का प्रकाशन है, इन पाँचों कोषों की क्रियाशीलता व अभिव्यक्ति मानव में है । यह अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, आनंदमय कोष और विज्ञानमय कोष है ।

★ विज्ञानमय कोष का जागृत होना ही ज्ञान, विज्ञान और विवेक के रूप में विशेष ज्ञान का कारण है, विवेक और विज्ञान द्वारा ही दु:ख के कारण और निवारण की समझ विकसित होती है जिससे ही सुख, शांति, संतोष और आनंद की अनुभूति संभव है ।

श्र चारों अवस्थाओं की सृष्टि की अपनी विशेषताएँ हैं तथा विशिष्टताऍँ रूप, गुण, स्वभाव और धर्म से संबंधित हैं ।

★ रूप :- चारों अवस्थाओं की सृष्टि में रूप का निर्धारण आकार, आयतन और घनता के भेद से है ।

★ गुण :- चारों अवस्थाओं में गुण सम, विषम अथवा मध्यस्थ के भेद से है ।

ः- सापेक्ष शक्तियों की गुण संज्ञा है अथवा एक से अधिक एकत्र होने पर जो प्रभाव उत्पन्न होता है उसे गुण संज्ञा है ।

:: सम :- सृजन क्रिया में सहायक गुण को सम संज्ञा है ।

:: विषम :- विसर्जन क्रिया में सहायक गुण को विषम संज्ञा है ।

:: मध्यस्थ :- विभव क्रिया में सहायक गुण को मध्यस्थ संज्ञा है ।

ज्ञ यह तीनों सृजन, विसर्जन तथा विभव की क्रिया ऊर्जामय हैं ।

★ स्वभाव :- पदार्थ में संगठन-विघटन क्रियाएं तथा विघटन-संगठन क्रियाएं व उनकी निरंतरता स्वभाव है ।

ज्ञ प्राणावस्था में सारक अथवा मारक या सारक-मारक क्रिया की निरंतरता स्वभाव है ।

ज्ञ जीवावस्था में क्रूर, अक्रूर स्वभाव है ।

ज्ञ ज्ञानावस्था में धीरता, वीरता और उदारता, दया, कृपा व करुणा स्वभाव है ।

★ धर्म :- पदार्थावस्था में अस्तित्व धर्म है ।

ज्ञ प्राणावस्था में अस्तित्व सहित पुष्टि धर्म है ।

ज्ञ जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि सहित जीने की आशा धर्म है ।

ज्ञ ज्ञानावस्था में अस्तित्व, पुष्टि, जीने की आशा सहित सुख ही धर्म है ।