व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र प्राणमय कोष, अन्नमय कोष व मनोमय कोष जड़ संसार में; तथा मनोमय कोष, आनंदमय कोष व विज्ञानमय कोष चैतन्य संसार में स्पष्ट अथवा प्रमाणित होते हैं ।

:: अन्नमय कोष :- ग्रहण और विसर्जन करने वाले अंग की अन्नमय कोष संज्ञा है ।

:: प्राणमय कोष :- प्रेरणा को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने वाले अंग की प्राणमय कोष संज्ञा है ।

:: मनोमय कोष :- चयन करने वाले अथवा चुनाव करने वाले अंग की मनोमय कोष संज्ञा है ।

:: आनंदमय कोष :- सुख अथवा दु:ख को व्यक्त करने वाले अंग की आनंदमय कोष संज्ञा है ।

:: विज्ञानमय कोष :- विशेष ज्ञान को ग्रहण करने वाले अंग की विज्ञानमय कोष संज्ञा है ।

श्र कोष-प्रकाशन भेद से सृष्टि में अवस्था भेद पाया जाता है ।

ज्ञ पदार्थावस्था की सृष्टि मेंं अन्नमय कोष और प्राणमय कोष का प्रकाशन है । इन दो कोषों की क्रियाएँ समस्त पदार्थावस्था के मूल रूप परमाणुओं में पाई जाती है । प्रत्येक परमाणु सचेष्ट है, इसलिए उसमें प्रेरणा पाने वाला अंग सिद्ध है, इसके साथ ही परमाणु ह्रास एवं विकास से मुक्त नहीं है, जो कि ग्रहण विसर्जन का ही प्रतिफल है । अत: पदार्थ में अन्नमय कोष भी सिद्ध हुआ । अन्नमय कोष की क्रियाशीलता भी चेष्टा का ही फल है अर्थात् प्राणमय कोष के चेष्टित होने का फल ही है कि अन्नमय कोष की क्रिया भी संपादित होती है । अत: यह सिद्ध हुआ कि अन्नमय कोष और प्राणमय कोष का अविभाज्य संबंध है ।

ज्ञ प्राणावस्था की सृष्टि में तीन कोषों का प्रकाशन है, यह है - अन्नमय कोष, प्राणमय कोष और मनोमय कोष । वनस्पतियों में पदार्थावस्था की सृष्टि की अपेक्षा चयनवादी क्रिया विशेष है, जो मनोमय-कोष की क्रिया है । यह इससे स्पष्ट होता है कि एक ही भूमि पर स्थित विभिन्न वनस्पतियाँ अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार आवश्यकीय तत्वों एवं रसों को ग्रहण करते हुए पुष्ट होती देखी जाती हैं ।

ज्ञ जीवावस्था व भ्रमित ज्ञानावस्था में चार कोषों की क्रिया स्पष्ट है । यह है - अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष और आनंदमय कोष ।

★ आनंदमय कोष का विकास ही चैतन्यता का कारण है तथा इसी चैतन्यता के कारण जीवावस्था में सुख और दु:ख का प्रकाशन है । इसके कारण ही जीवावस्था की इकाई को विषयों (आहार, निद्रा, भय और मैथुन) का सेवन करने का अधिकार है ।