व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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ज्ञ किसी भी भूमि पर पूर्ण सृष्टि तभी संभव है जब वह अपने में आवश्यक संपूर्ण रस, उपरस एवं वायु से समृद्ध हो जाये । इस प्रकार से इस असीम अवकाश में अनंत भूमि अपनी प्रगति के अनुसार पूर्ण-विकसित, अर्धविकसित, अल्प विकसित एवं अविकसित अवस्था में हैं । रस, उपरस का प्रमाण रासायनिक क्रियाकलाप और वैभव के रूप में है ।

ज्ञ अविकसित सृष्टि पदार्थावस्था की सृष्टि है । समस्त मृद्, पाषाण, मणि एवं धातु की गणना अविकसित सृष्टि में है । अल्प-विकसित सृष्टि प्राणावस्था की सृष्टि है । समस्त वनस्पति प्राणावस्था की सृष्टि में सम्मिलित हैं । अर्ध-विकसित सृष्टि जो जीवावस्था की सृष्टि है । मानवेतर अण्डज और पिण्डज सृष्टि की गणना जीवावस्था में है । ज्ञानावस्था में शरीर रचना पूर्ण-विकसित सृष्टि है । यह स्पष्ट हो जाना आवश्यक है कि अल्प-विकसित सृष्टि में अविकसित सृष्टि; अर्ध-विकसित सृष्टि में अल्प-विकसित और अविकसित तथा पूर्ण-विकसित सृष्टि में अर्ध विकसित, अल्प-विकसित तथा अविकसित सृष्टि समाहित है ही क्योंकि गुरु मूल्य में लघु मूल्य समाया रहता है ।

ज्ञ फलतः उच्चकोटि की सृष्टि में निम्न कोटि की सृष्टि के गुण, स्वभाव और धर्म विलय रहते ही हैं ।

:: गुण :- सापेक्ष शक्तियों की गुण संज्ञा है । सम, विषम, मध्यस्थ के रूप में पहचान होती है, यही प्रभाव है ।

:- एक से अधिक एकत्र होने पर जो प्रभाव उत्पन्न होता है, उसे गुण की संज्ञा है ।

:: स्वभाव :- मौलिकता ही स्वभाव है ।

:- गुणों की उपयोगिता की स्वभाव संज्ञा है ।

:: धर्म :- धारणा ही धर्म है ।

★ सृष्टि का उपरोक्त वर्गीकरण कोष गठन भेद से है ।

:: कोष :- आशय तथा प्रयोजन सहित निश्चित क्रिया विशेष को कोष संज्ञा है । प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार संपदा ही कोष है ।

:: कोष का तात्पर्य सम्पन्नता से है । प्रेरणा सम्पन्नता का अर्थ है ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता व चुम्बकीय बल सम्पन्नता । प्रेरणा सम्पन्नता ही प्राणमय कोष है । इसी प्रेरणा सम्पन्नता के आधार पर अंशों की परस्पर पहचान, निश्चित दूरी में नियन्त्रित रह कर परमाणु के रूप में प्रमाणित होता है । परमाणु में यह प्रवृत्ति ही प्राणमय कोष है ।

★ ★ अनंत रचनाएँ पाँच कोषों के गठन भेद के अंतर्गत परिलक्षित होती है । इन पाँच कोषों को क्रमश: प्राणमय कोष, अन्नमय कोष, मनोमय कोष, आनंदमय कोष और विज्ञानमय कोष संज्ञा है ।