व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
:: कान्ति :- अज्ञान को क्षीण करने वाली प्रक्रिया ।
:: इच्छा :- वांछित एवं इप्सित के प्रति सजगता ।
:: विद्या :- जो जैसा है, उसको वैसा ही स्वीकार करना ।
:: प्रज्ञा :- यथार्थ की पूर्ण अनुमान सहित पूर्ण स्वीकृति क्रिया ।
:: कीर्ति :- विकास की ओर सक्रियता ।
:: विचार :- स्फुरण पूर्वक सत्यता को उद्घाटित करने हेतु की गई क्रिया ।
:: निश्चय :- सत्यतापूर्ण विचार की निरंतरता ।
:: धैर्य :- न्यायपूर्ण विचार की निरंतरता ।
:: शांति :- समाधान पूर्ण विचार व्यवहार में गतित होना ।
:: दया :- दूसरे के विकास में हस्तक्षेप न करना, सहायक होना ।
:: दम :- ह्रास की ओर जो आसक्ति है, उसकी समापन क्रिया । उत्थान की ओर प्रवृत्त ।
:: कृपा :- दूसरे मानव के जागृति के लिये सहायता अथवा पात्रता अर्जित करने मेें सहायक होना ।
:: करुणा :- जागृति के लिए उत्प्रेरित करना अथवा जागृति के लिए योग्यता और पात्रता अर्जित करने में सहायक होना ।
:: उत्साह :- जागृति के लिये प्रवृत्ति, उत्सव, सजगता ।
:: कल्पना :- मान्यता का पूर्व रूप ।
:: भाव :- मूल्य, मूल्यांकन ।
:: श्रद्धा :- श्रेय की ओर गतिशीलता ।
:: क्षमा :- जागृति के लिए की जाने वाली सहायता के समय उसके ह्रास पक्ष से अप्रभावित रहना ।
:: अनुराग :- निर्भ्रम ज्ञान की निरंतरता में अनन्यता ।
:: जाति :- रूप, गुण, स्वभाव व धर्म की विशिष्टता एवं भौतिकता ।
श्र मन को जो प्रिय हो, उसके चुनाव की प्रकिया की चयन संज्ञा है । मन में आस्वादन अपेक्षा पूर्वक चयन होता है ।
श्र चित्त सहज चित्रण के आठ क्रियायें - रूप, गुण, गणना, काल, विस्तार, श्रम, गति, परिणाम ।