व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र जिसकी जागृति और तृप्ति शेष है, उसे ही शेष जागृति को प्राप्त करने के लिये साधन की आवश्यकता है ।
श्र आत्मा का पूर्ण विकास (ज्ञान की पारदर्शकता) सहअस्तित्व में अनुभूति में, बुद्धि का पूर्ण विकास आत्मा के संकेत ग्रहण से, चित का पूर्ण विकास बुद्धि के संकेत बोध की सत्यसाक्षी में कलाकरण योग्य क्षमता से, वृत्ति का पूर्ण विकास चित्त के संकेत ग्रहण अर्थात् धर्म पूर्ण विचार निर्माण योग्यता से तथा मन का पूर्ण विकास वृत्ति का संकेत ग्रहण कर न्यायसम्मत व्यवहार पात्रता अर्जित करने से है ।
श्र मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि व आत्मा जीवन में अभिन्न है । जीवन जागृति के स्थिति में, जीवन परंपरा में प्रमाणित होने वाली विभूतियाँ ( क्रियाएँ) बल और शक्ति के रूप में निम्न हैं :- आत्मा में दो विभूतियाँ, बुद्धि में चार, चित्त में सोलह, वृत्ति में छत्तीस व मन में स्थिति और गति मे ंचौसठ विभूतियाँ (क्रियाएँ) पायी जाती है । उपरेाक्त सभी क्रियाओं को हर व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है । इस प्रकार मानव (जीवन) में कु ल स्थिति और गति अर्थात् बल और शक्ति के रूप में 122 क्रियाएं पायी जाती है ।
श्र अनुभव और आनंद रूपी प्रमाण आत्मा में ;
श्र अस्तित्व एवं परमानंद आत्मस्थ अनुभूति है ।
:: अस्तित्व (अनुभव) :- नाश रहित गुण । नित्य वर्तमान ।
:: परमानन्द (प्रामाणिकता) :- आत्मा की पारदर्शकता अथवा सहअस्तित्व में अनुभूति ।
:: आनंद :- मध्यस्थ क्रिया सहज पूर्ण-बोध या आत्मबोध ।
:: धी :- निश्चय की निरंतरता ।
:: अस्तित्व (बोध) :- ज्ञान-ग्रहण एवं प्रभावीकरण क्षमता ।
:: धृति :- भय का अभाव ।
:: श्रुति :- यथार्थ रूपी ज्ञान, विवेक, विज्ञान का भाषाकरण ।
यथार्थ जानकारी का भाषाकरण ।
:: स्मृति :- बार-बार आवश्यकतानुसार, भाषापूर्वक समझदारी का प्रस्तुतीकरण ।
:: मेधा :- कला को धारण करने वाली क्रिया ।
:: श्री :- समृद्धि की स्वीकृति ।
:: संतोष :- अभाव का अभाव ।
:: कला :- उपयोगिता योग्य सुंदर क्रिया ।