व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र अज्ञान, आलस्य, अत्याशा, आक्रोश, आवेश, प्रलोभन, अभाव व रोग पक्ष ही दुुुु:ख का कारण है । समस्त दु:ख का मूल भ्रम में ही है ।

श्र ह्रासांश में स्थित इकाई के लिए दो कारण हैं :- प्रथम है, अजागृति तथा द्वितीय है, शक्ति का अपव्यय ।

श्र अजागृत को जागृत बनाना ही सामाजिकता का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य और कार्यक्र म है ।

च जो जिसको अधिक मूल्यवान मानता है, उसी के लिए वह अपने, तन, मन व धन का व्यय करता है । ऐसी मूल्यांकन क्रिया मनुष्य के द्वारा निर्भ्रान्त, भ्रान्ताभ्रान्त और भ्रान्त अवस्था भेद से होती है जिसके कारण कुछ मनुष्यों ने चार विषयों, कुछ मनीषियों ने तीन ऐषणाओं कुछ निर्भ्रान्त मानवों ने भ्रममुक्ति को परमावधि मूल्यांकित किया है । इस मूल्यांकन के अनुरूप ही विभिन्न स्तर के मनुष्यों द्वारा समस्त साधनों का नियोजन किया गया है ।

ज्ञ मानव कुल में निहित वैविध्यता का निराकरण केवल न्यायपूर्ण व्यवहार समाधान पूर्ण विचार नीति से संभव हुआ है ।

ज्ञ भ्रांत स्थिति से की गयी मूल्यांकन क्रिया को आसक्ति, भ्रांताभ्रांत स्थिति से किए गए मूल्यांकन की जागृति तथा निभ्रांत स्थिति से किए गए मूल्यांकन स्थिति की ‘यथार्थ’ संज्ञा है ।

ज्ञ यथार्थ मूल्यांकन क्षमता ही दर्शन की पूर्णता, दर्शन की पूर्णता ही संतुलन, पूर्ण संतुलन ही ज्ञान, ज्ञान ही व्यापकता में अनुभूति, व्यापक मेंं अनुभूति ही निर्भ्रमता और निर्भ्रमता से ही यथार्थ मूल्यांकन क्रिया नि:सृत होती है । ऐसी इकाई में न्याय पूर्ण व्यवहार और धर्म पूर्ण विचार स्वभाव के रूप में परिलक्षित होता है ।

श्र अनुभव के लिए समझदारी, समझदारी के लिए अनुभूति, इच्छा के लिए समझदारी और समझदारी के लिए इच्छा, इच्छा के लिए क्रिया और क्रिया के लिये इच्छा, उपयोग के लिये क्रिया और क्रिया के लिए उपयोग, क्रिया के लिए उत्पादन और उत्पादन के लिए क्रिया व्यस्त है ।

श्र रूप क्रिया की गणना काल, सम्वेग, वेग , विसर्जन, गुण व स्वभाव के अनुसार स्थूल व सूक्ष्म भेद से है, जो मानव की समझदारी (ज्ञान) बुद्धि में भाव, इच्छा में प्रतिभाव, विचार में अनुभाव, मन से प्रवृत्तियों के रूप में व्यक्त होती है ।

श्र सुरूप व कुरूप के भेद से रूप, जड़ व चैतन्य के भेद से क्रिया, लोक व लोकेश के भेद से लक्ष्य, विषय व निर्विषय व्यवस्था के भेद से ज्ञान, विधि व निषेध के भेद से कर्म, सार्थक व निरर्थक भेद से भाषा है ।

श्र अवस्था भेद से आसक्ति एवं समाधान, आसक्ति एवं समाधान भेद से आवश्यकता, आवश्यकता भेद से श्रम, श्रम भेद से उत्पादन, उत्पादन भेद से उपलब्धि, उपलब्धि भेद से परिणाम, परिणाम भेद से ही क्षमता, योग्यता एवं पात्रता; क्षमता, योग्यता एवं पात्रता भेद से सहजात्मक,