व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
:: समाधानपूर्ण विचार :- सत्य सहज आभास ।
:: चिंतन :- सत्य सहज प्रतीति ।
:: ज्ञानानुभूति :- सहअस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभूति ।
श्र ज्ञानानुभूति के लिए सहअस्तित्व रूपी ईष्ट के प्रति निर्भ्रम ज्ञान, अनन्यता, अनुराग तथा प्रेम के योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता का होना अनिवार्य है, जो साधक के न्याय पूर्ण व्यवहार, समाधान पूर्ण विचार से तथा किसी अनुभवपूर्ण मानव के आज्ञा पालन में पूर्ण निष्ठा से सिद्ध है ।
:: निर्भ्रम ज्ञान :- जो जैसा है, उसको वैसा ही जानना व समझना, समझाना ।
:: अनन्यता :- निर्भ्रम ज्ञान की निरंतरता ।
:: अनुराग :- अनन्यता की निरंतरता ।
ः- निभ्रमता के लिए उत्कट प्रयास ही अनुराग है ।
:: प्रेम :- अनुराग सहित अनन्यता की निरंतरता ।
ः- दया, कृपा, करूणा सहज संयुक्त अभिव्यक्ति ।
श्र प्रेम की निरंतरता से ही मानव तद्रूप भाव को प्राप्त होकर भ्रम मुक्ति का अधिकारी होता है ।
श्र अनादिकाल से व्यापक रूपी सत्ता हर इकाई को समान रूप में प्राप्त है ही, इसमें अनुभूति ही मानव के लिये सान्निध्यानुभूति है । यही मानव का लक्ष्य है ।
श्र अनुभूति की स्थिति को ही ‘कैवल्य’ या ‘तादात्म्य’ अनुभूति की संज्ञा है, जिसमें क्लेश, अमर्ष, भय, भ्रम बंधन मुक्ति है ।
श्र आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होते ही बुद्धि, चित्त, वृत्ति और मन पर उस महिमा की प्रसारण-क्रिया बिंब-प्रतिबिंब-अनुबिंब-न्याय से प्रभाव सम्पन्न होती है ।
श्र चैतन्य इकाई का अधिकतम विकसित अंश आत्मा ही है, क्योंकि हर अवस्था के परमाणु में मध्यांश, मध्यस्थ क्रिया में व्यस्त है और अन्य सभी अंग सम या विषम क्रिया में व्यस्त पाए जाते हैं ।
श्र समझदारी की आंशिकता में क्रिया, क्रिया की आंशिकता में भोग, भोग के अनुपात में इंद्रियानुभव और इसके अतिरिक्त अनुमान के कारण ज्ञानवर्धन संपन्न हुआ है । मूल में पूर्ण ज्ञान व्यंजना का अधिकार आत्मा में है ।
:: व्यंजना :- अनुभव क्रिया का प्रभावशील, क्षमता अथवा प्रभाव क्षेत्र ।