व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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:: अनावश्यक :- अमानवीयता की ओर गति ।

:: चालन :- त्वरणन ।

:: संचालन :- संगठित रूप से पूर्णता के अर्थ में चालन, विधिवत चालन ।

:: प्रति-संचालन :- संतुलित रूप में त्वरणन ।

:: प्रतिपालन :- जीवन में व्यतिक्रम का निवारण ।

न्याय, धर्म, सत्य प्रतीत होने के अर्थ में पालन ।

:: परिपालन :- परम्परा के अर्थ में पालन ।

:: परिपोषण :- जीवन-क्रम को जागृति सहज निरंतरता प्रदान करना ।

:: परिवर्धन :- जीवन के क्रिया-कलाप में जागृति के लिए सहयोग ।

:: चित्त-परिवर्तन :- मनाकार में उन्नतोचित्त स्फूर्त होना ।

श्र खनिज, वनस्पति एवं जीव का उपयोग एवं सदुपयोग प्राकृतिक एवं वैकृतिक भेद से मानव करता है ।

:: वैकृतिक :- उपयोगिता के अर्थ में मनाकार को साकार करना ।

श्र संवेदन, संवहन, संरक्षण, संबोधन, संवर्तन तथा प्रत्यावर्तन क्रिया चैतन्य पक्ष की विशिष्टता है, जो जड़ में नहीं पायी जाती ।

:: संवेदना :- पाँचों ज्ञानेंद्रियों व कर्मेंद्रियों का ज्ञान अथवा विकास के प्रति प्रवृत्ति ।

:: संवहन :- पूर्णता के अर्थ में जिज्ञासाओं का वहन । अथवा पूर्णता के अर्थ में वहनशीलता ।

:: संरक्षण :- विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करना ।

:: संबोधन :- यथार्थ-बोधन ।

:: संवर्तन :- परिमार्जन एवं परिपूर्णता के लिये प्राप्त संकेत के अनुसरण क्रिया की सम्वर्तन संज्ञा है ।

:: प्रत्यावर्तन:- जागृति सहज गतिशीलता ।

श्र मानव जागृति क्रम एवं जागृति के अनुसार पशु मानव, राक्षस मानव, मानव, देव मानव, दिव्य मानव के रूप में दृष्टिगत होता है ।

ज्ञ मानव, देव मानव, दिव्य मानव रूप में जागृति परंपरा है ।