व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र मध्यस्थ विचार :- धर्मपूर्ण विचार ।
श्र मध्यस्थ अनुभव :- सहअस्तित्व रूपी परम सत्य ।
श्र न्यायपूर्ण व्यवहार ही मानवीयतापूर्ण व्यवहार है । मानवीयता पूर्ण व्यवहार से तात्पर्य है मानवीयता के प्रति निर्विरोधपूर्ण व्यवहार जिसको समझना व समझाना अखंड मानव समाज की दृष्टि से आवश्यक है । इसके लिए अध्ययन व शिक्षा आवश्यक है ।
श्र शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा केवल व्यवसाय का ज्ञान कराया जाता है यह मात्र भौतिक समृद्धि के लिये सहायक हुआ है ।
श्र मानवीयता और अतिमानवीयता का वर्गीकरण एवं पुष्टि मानव के साथ किए गये व्यवहार से ही सिद्ध हुई है, जिसके लिए अध्ययन तथा दीक्षा आवश्यक है ।
:: दीक्षा अनुभवमूलक विधि से ः- सुनिश्चित व्यवहार पद्धति व आचरण पद्धति बोध की ‘दीक्षा’ संज्ञा है, जो व्रत है, जिसकी विश्रृंखलता नहीं है, अथवा जिसमें अवरोध नहीं है ।
श्र मानव के आहार, विहार, व्यवहार व व्यवस्था में भागीदारी से ही उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन होता है ।
:: व्यक्तित्व :- स्वयं में निहित प्रतिभा-प्रसारण के क्रम में सहायक आहार, विहार व व्यवहार की ‘व्यक्तित्व’ संज्ञा है ।
च व्यवहार का ईष्ट-अनिष्ट, उत्थान-पतन, विकास-ह्रास, उचित-अनुचित, लाभ-हानि, न्याय-अन्याय, पुण्य-पाप, विधि-निषेध, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, समाधान-समस्या, आवश्यक-अनावश्यक, भेद-प्रभेद से तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है । व्यक्ति का मूल्यांकन उसके चैतन्य पक्ष की प्रतिभा का ही मूल्यांकन है, क्योंकि चैतन्य इकाई द्वारा ही जड़ पक्ष का चालन, संचालन, प्रतिचालन, परिपालन, परिपोषण, मूल्यांकन, परिवर्धन व परिवर्तन की क्रिया का संपादन हुआ है, जो उसी की इच्छा व विचार का पूर्व रूप है ।
:: ईष्ट :- प्रयोजनशील व सार्थक इच्छा के अनुकूल मानवीयतापूर्ण व अतिमानवीयता सहज उपलब्धि ।
समाधान समृद्धि अभय सहअस्तित्व सहज ज्ञान, विवेक, विज्ञान है ।
:: अनिष्ट :- प्रयोजनशील व सार्थक इच्छा के प्रतिकूल उपलब्धि ।
:: उत्थान :- मानवीयता की ओर गति ।
:: पतन :- अमानवीयता की ओर गति ।
:: ह्रास :- अधिक मूल्यन से न्यून मूल्यन की ओर परिणाम ।
:: विकास :- न्यून मूल्य से अधिक मूल्य की ओर परिणाम ।