व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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उपयोगी, सदुपयोगी होते हुए, प्रयोजन पूर्ण होने में अपेक्षा बनी रहती है । इसलिए देवमानव, दिव्यमानव के रूप में व्यक्त होना, प्रमाणित होना आवश्यकता के रूप में होना पाया जाता है ।

श्र पूर्वानुक्रम अनुभूति में, निहित क्रिया के रूप में, विकसित का संकेत ग्रहण करना है, जिससे विकास की ओर प्रवृत्ति, प्रयास एवम् उद्देश्य का रहना परम आवश्यक है ।

श्र हर मानव जागृतिशील है अथवा जागृत होना चाहता है । हर मानव योग पूर्वक ही जागृत होता है । जागृति के लिए ही वह आतुर, कातुर, आकुल, व्याकुल, आवेशित अथवा उद्विग्न रहता है ।

:: आतुर ः- पात्रता से अधिक इच्छा प्रगट करने का प्रयास ।

:: कातुर ः- वाँछित इच्छा पूर्ति के लिए शीघ्रता से कार्यरत होना जिसमें कुशलता, निपुणता और पाण्डित्य का अभाव हो ।

:: आकुल ः- वाँछित के अभाव की पीड़ा का अनुभव ।

:: व्याकुल ः- वाँछित की पीड़ा से भर जाना ।

:: उद्विग्न ः- वाँछित क्रिया में अप्रत्याशित गति ।

:: आवेश ः- अतिक्रमण या आक्रमण से प्राप्त दबाव ही आवेश है ।

:: विधिवत् आचरण ः-धर्मनीति एवं राज्यनीति सम्मत व्यवहार ।

श्र आस्वादन एवं अनुभूति के लिए ही मानव द्वारा विभिन्न सभी पक्षों का अनुसंधान, संधान, प्रयोग व व्यवसाय, अभ्यास तथा आविष्कार किया गया है ।

:: आस्वादन :- जो जिसमें नहीं हो या कम हो और उसे पाने की इच्छा हो, ऐसी स्थिति में उसकी उपलब्धि से प्राप्त प्रभावपूर्ण क्रिया की, जिसमें तृप्ति या तृप्ति की प्रत्याशा अवश्य हो, ‘आस्वादन’ संज्ञा है ।

श्र कामना-जन्य क्षुधा तथा तृषा, राग द्वेषात्मक आवेशजन्य काम और क्रोध, मन आशित चार विषय तथा लोभ यह भ्रमित मानव की विवशताएँ हैंं । जागृत विचारों से पोषित व्यवहार एवं तीन ऐषणाएँ, चिंतन से प्रस्तुत कला एवं साहित्य, बोधपूर्वक प्रस्तुत तात्विकता तथा समाधान, जागृत मानव के द्वारा उद्घाटित हुआ है ।

श्र संसार के समस्त क्रियाकलाप व्यापक सत्ता की अनुभूति, विकसित के सान्निध्य और अविकसित के आस्वादन के लिये है ।

श्र सहअस्तित्व में अनुभव ही सर्वमानव का ईष्ट है । अनुभव के फलन में सहअस्तित्व में तद्रूपता, तादात्म्यता होना स्वाभाविक है । ऐसे तादात्म्य मानवत्व संपन्न मानव ही देव मानव, दिव्य मानव कोटि में होते हैं । ऐसे मानव के तत्सान्निध्य एवं तदावलोकन होना जागृत मानव परंपरा में