व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र आत्मा तीनों कालों में मध्यस्थ क्रिया के रूप में एक सा विद्यमान है । अस्तित्व अपरिवर्तनीय है । इसका आत्मा में अनुभव, बुद्धि में बोध होता है ।
श्र स्वस्वरूप तथा परस्वरूप बोध बुद्धि में, पूर्ण अपूर्ण चित्रण भेद चित में, सत्यासत्य, धर्माधर्म, न्यायान्याय, लाभालाभ, हिताहित, प्रियाप्रिय भेद वृति व प्रवृति में पूर्वानुक्रम या परानुक्रम भेद मन में तथा उसकी चयन क्रियाएं है ।
श्र वृत्ति, चित्त, बुद्धि व आत्मा के अनुकूल प्रेरणा की ‘पूर्वानुक्रम’ तथा प्राण, हृदय, शरीर और उसके व्यवहार, व्यवसाय के अनुकूल विवशता या दबाव की परानुक्रम संज्ञा है ।
श्र भौतिक, रासायनिक वस्तु व सेवा में आसक्ति से संग्रह, लोभ व कामुकता; प्राण तत्व में आसक्ति से द्वेष, मोह, मद, क्रोध, दर्प; जीवत्व (जीने की आशा) में आसक्ति से अभिमान, अज्ञान, ईर्ष्या और मत्सर यह अजागृत मानव की प्रवृत्तियाँ है । सत्य के प्रति निष्ठा से कर्त्तव्य में दृढ़ता, असंग्रह, सरलता तथा अभयता व प्रेमपूर्ण मूल प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती हैं ।
श्र पूर्ण-बोध का अवसर इस भूमि पर केवल मानव को ही है, अन्य किसी इकाई को नहीं । इसलिए मानव उसके बिना सुखी नहीं हुआ है । स्वस्वरूप (आत्म) बोध को पूर्ण बोध संज्ञा है ।
:: पूर्ण बोध - अस्तित्व दर्शन बोध, जीवन ज्ञान बोध, मानवीयतापूर्ण आचरण बोध ।
:: अपूर्ण बोध - सहअस्तित्व में अनुभव प्रमाण बोध होने के पहले अपूर्ण बोध ।
श्र जागृत मानव परम्परा ही सर्वमानव में, से, के लिए सर्वशुभ का स्त्रोत है ।
श्र मनःस्वस्थता अथवा आनंद की उपलब्धि ही रहस्य से मुक्ति है ।
श्र स्वस्वरूप की अनुभूति परम्परा सहज योग विधि से सार्थक होना पाया जाता है । योग का अर्थ मिलन है । सार्थक मिलन का अर्थ जागृत परम्परा में शरीर और जीवन का योग होने से है । जागृत मानव के साथ जागृति के लिए मिलन क्रिया सम्पन्न होने से है ।
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - अट्ठारह
सुख-शांति-संतोष और आनन्द
श्र मानव ने अनुभूति में ‘सुख-शान्ति-संतोष और आनन्द’ सहज निरन्तरता पाने का प्रयास किया है ।
श्र अनुभूति के लिये योग आवश्यक है । योग के प्राप्त एवम् प्राप्य दो भेद हैं ।