व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र जागृत जीवन में आवर्तन क्रिया में आत्मसत्ता का बुद्धि में, बुद्धि सत्ता का चित्त में, चित्त सत्ता का वृत्ति में तथा वृत्ति-सत्ता का मन में पूर्णतः अवगाहन होता है । चूंकि मन से वृत्ति, वृत्ति से चित्त, चित्त से बुद्धि और बुद्धि से आत्मा श्रेष्ठ है, जो जागृति मूलक आवर्तन क्रम के अनुसार आनन्द, संतोष, शान्ति और सुख के रूप में प्रमाणित होता है ।
श्र बुद्धि के लिए आत्मानुभूति तथा व्यापकता का बोध, चित के लिए सत्यबोध पूर्ण बुद्धि का चिंतन, वृति के लिए यथार्थ चिन्तनपूर्ण चित का विचार और मन के लिए न्यायपूर्ण विचारों का मनन ही पूर्ण विकास है जो प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के द्वारा देव मनुष्य तथा दिव्य मनुष्य का जीवन सिद्ध होता है ।
श्र आत्मा, मध्यस्थ क्रिया होने के कारण प्रभावी ही रहता है, क्योंकि दबाव सम-विषम में ही है । अनुभव प्रभाव मध्यस्थ होने के कारण दबाव मुक्त है । अनुभव सहज नित्य प्रभाव ही है ।
श्र बुद्धि के लिए आत्मानुभूति तथा व्यापकता का बोध, चित्त के लिए सत्य बोध पूर्ण बुद्धि का चिंतन, वृत्ति के लिए यथार्थ चिंतन पूर्ण चित्त का विचार और मन के लिए न्याय पूर्ण विचारों का मनन ही पूर्ण विकास है जो प्रत्यावर्तन प्रक्रिया की उपलब्धि है । इस प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के द्वारा देव मानव तथा दिव्य मानव का जीवन सिद्ध होना पाया गया है ।
श्र कुछ इकाईयों का विकास (जागृति) तथा अन्यों का ह्रास (भ्रम) एक रहस्य सा लगता है । इस रहस्य के मूल में प्रत्यावर्तन क्रिया है । ह्रास की ओर गतित मानवों को अन्यों का विकासशील होना रहस्यमय लगता है; जबकि इसमें कोई रहस्य नहीं है । ह्रास की ओर गतित मानव भी उन्हीं साधनों का उपयोग कर ह्रास को प्राप्त कर रहा है, जिन साधनों का उपयोग कर दूसरा व्यक्ति विकसित (जागृत) हो रहा है अर्थात् साधन वही है मात्र उनकी प्रयुक्ति की दिशा में ही अंतर है ।
श्र आत्मा मध्यस्थ क्रिया है । मध्यस्थ-क्रिया का वातावरण भी मध्यस्थ है, यही कारण है कि आत्मा तथा उसके वातावरण पर्यन्त सम तथा विषम का दबाव नहीं पड़ता है ।
श्र सत्ता व्यापक है इसलिए वह दबाव का कारण सिद्ध नहीं होता । क्रिया के बिना दबाव या प्रभाव सिद्ध नहीं होता । अतः शून्य अथवा व्यापक सत्ता प्रभाव व दबाव दोनों से मुक्त व सम-विषम प्रभाव से तटस्थ है । हर इकाई स्वयम् की पात्रता वश ही उसे पाकर गतिशील है ।
★ व्यापक सत्ता सर्वत्र एवम् सर्वकालिक अवस्थिति तथा उसमें समस्त क्रियाएं समाहित होने से यह सिद्ध हुआ कि व्यापक सत्ता एवम् क्रियाएं अविभाज्य है ।
ज्ञ यह सर्वकालिक, सर्वदेशिक है एवम् सर्वत्र व्याप्त होने के कारण सबको समान रूप से प्राप्त है । इसलिए, यह सिद्ध होता है कि सभी शून्य में संरक्षित व नियंत्रित है । यह नियंत्रण ही इकाई की चेष्टा का मूल कारण है । इसलिए सत्ता को ‘महाकारण’ संज्ञा से भी जाना जाता है ।
★ यह विकल्प अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में है । इस प्रस्ताव में मानव ही अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण देना प्रतिपादित है । साथ ही मानव ही प्रमाण होने का