व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र ज्ञानानुभूति की योग्यता मानव के जागृति पर; मानव की जागृति संस्कारों पर; संस्कारों का विकास वातावरण, अध्ययन व प्रयास पर; वातावरण, अध्ययन व प्रयास मानवीयता, अतिमानवीयता पर; मानवीयता, अतिमानवीयता ज्ञानानुभूति की योग्यता पर निर्भर करती है ।

श्र स्वस्वरूप ही आत्मा (मध्यस्थ क्रिया) है । मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि से आत्मा सहज अनुभव श्रेष्ठ क्रिया है । फलस्वरूप ही आत्मा के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित न होने तक बुद्धि में आनन्दानुभूति, चित्त में सन्तोषानुभूति, वृत्ति में शान्ति की अनुभूति तथा मन में सुखानुभूति नहीं है ।

श्र जो सुखी नहीं है, वह दूसरों को सुखी नहीं कर सकता । जो सुखी नहीं है, वह दुःखी ही होगा तथा जिसके पास जो होगा वह उसी का बंटन कर सकेगा ।

श्र बुद्धि को आत्मबोध व व्यापकता सहज अनुभव बोध का अवसर है । इसीलिये ऐसी अनुभूति के अनन्तर सर्वतोमुखी समाधान व समझ सुलभ है ।

श्र विकसित इकाई अविकसित इकाई के अनुरूप व्यवहार और विचार से ह्रास की ओर गतित होती है जैसे मानव जीवों से विकसित है पर जीवों के सदृश्य व्यवहार, विहार एवं आहार के प्रयास से ही ह्रास की ओर गतित है ।

श्र आसक्तिवश ही गुरु मूल्य का लघु मूल्य की ओर झुकाव है, जो अवमूल्यन है । गुरु मूल्य को लघु मूल्य के लिए प्रायोजित एवं नियोजित करने के लिए भ्रम का रहना अनिवार्य है ।

श्र यथार्थता से भिन्न मान्यता ही ‘भ्रम’ है ।

श्र ह्रास की सूचना रहते हुए भी विकास के स्पष्ट ज्ञान एवम् निष्ठा के अभाव में मानव विवशता पूर्वक अर्थात् भ्रमपूर्वक पतन की ओर गतित है ।

★ अपराधहीन व्यवहार के लिये सार्वभौम व्यवस्था की प्रेरणा, न्यायपूर्ण विचार के लिये सामाजिक आचरण का प्रभाव, धर्मपूर्ण इच्छा के लिये अध्ययन एवम् सुसंस्कार का प्रभाव तथा अज्ञान रहित बुद्धि के लिये अर्न्तनियामन का प्रभाव आवश्यक सिद्ध होता है ।

ज्ञ अतः परस्परता में जो व्यतिरेक है उसके उन्मूलन के लिये तथा परस्परता में विश्वास को उत्पन्न करने के लिये, जो जागृति के लिये प्रथम सोपान है, मानवीयतापूर्ण आचरण व सामाजिकता, न्यायपूर्ण व्यवस्था, सहअस्तित्व रूपी सत्य प्रतिष्ठित शिक्षा एवम् इसमें विश्वासपूर्वक व्यक्तिगत निष्ठा उत्पन्न करना सबका सम्मिलित दायित्व सिद्ध होता है ।

★ ह्रास एवं विकास का जो क्रम है, वह आवर्तनशीलता के आधार पर सिद्ध होता है । प्रत्येक मानव जागृति ही चाहता है, किन्तु भ्रमवश ह्रास को प्राप्त करता है । इसका कारण मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि और आत्मा के बीच आवर्तन एवं प्रत्यावर्तन क्रिया एवं उसके प्रभाव का ज्ञान न होना ही है, जो रहस्यता के रूप में मानव मन को उद्वेलित किए रहता है ।