व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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ज्ञ प्राप्य योग में किसी के योग में किसी का वियोग भी है । प्राप्त योग में न किसी का योग है और न ही किसी का वियोग है । प्राप्ति उसी की होगी जिसका अभाव होगा । प्राप्त योग (व्यापक सत्ता) से रिक्त मुक्त कोई इकाई नहीं है या क्रिया नहीं है । इसीलिये प्राप्य योग का ही सान्निध्य अथवा संग्रह होता है तथा प्राप्त योग की मात्र अनुभूति होती है ।

श्र प्राप्त योगानुभूति के लिए सुयोग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता ही अधिकार है । ऐसी सुयोग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता प्राप्त करना ही इकाई के जागृति का चरमोत्कर्ष है ।

ज्ञ सुयोग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता के लिये सहअस्तित्व में अध्ययन है । अनुभव के लिए मानव ने अध्ययन, प्रयोग, अनुसंधान तथा अभ्यास भी किये हैं, जो मानवीयता और अतिमानवीयता के रूप में परिलक्षित हुआ है ।

★ इस दिशा में जागृति का परिचय चैतन्य, ज्ञानावस्था के जागृत मानवों में ही पाया जाता है, जो मानव, देव मानव एवम् दिव्य मानव के रूप में है । मानव देव तथा दिव्य मानवों की संख्या वृद्धि के लिए समुचित प्रयोग, अध्ययन, व्यवहार व व्यवस्था के स्तर में एकसूत्रता को अनुस्यूत किया जाना मानव कुल के लिये अति आवश्यक है, क्योंकि ऐसे विकसित मानवों द्वारा अपराध या अपव्यय की संभावना नहीं है ।

श्र अज्ञान, अत्याशा तथा अभाववश ही मानव अपराध करता है और अविवेकवश ही अपव्यय करता है ।

ज्ञ अपराध और अपव्यय, यह दोनों व्यवहार, मानवीयता और सामाजिकता की दृष्टि से सहायक नहीं है । अजागृति वश अपराध है ।

श्र मध्यस्थ क्रिया (आत्मा) का अध्ययन अनुसंधानपूर्वक प्रस्तुत मध्यस्थ दर्शन का शोधपूर्वक अध्ययन अनुसरण ही एकसूत्रता है । एकसूत्रता न्याय, धर्म तथा सत्यतापूर्ण व्यवहार, विचार एवं अनुभूति ही है ।

श्र मानव को विचार के अभाव में किसी भी सम-विषमात्मक क्रिया सम्भावना नहीं है ।

श्र सत्य पहले से ही प्राप्त सत्ता है, जिसकी उपस्थिति जागृति के पूर्व भी पाई जाती है और अन्तिम ह्रास भी इसमें ही अवस्थित है । इसी के आनुषंगिक जो अनुभूति है, उसे ‘पूर्वानुक्रम’ की संज्ञा है । ऐसी अनुभूति में ही मानव ने समाधान एवम् आनन्द की निरंतरता का अनुभव किया है ।

श्र मानव में तीनों ऐषणाएं, मानवीय विषय-प्रवृत्ति के रूप में स्पष्ट हुआ रहता है, दृष्टि न्याय प्रधान, धर्म व सत्य सम्मत रहती है । इनका स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता के रूप में पहचाना गया है । ऐसे विषय, प्रवृत्ति, स्वभाव व दृष्टि संपन्न मानव को जागृत मानव के रूप में पहचाना गया है । इन्हें सर्वतोमुखी समाधान ज्ञान हुआ ही रहता है । उसे क्रियान्वयन करने की स्थिति मेें ऐषणाएं विशेषकर पुत्रेषणा, वित्तेषणा सीमित क्षेत्रों में व्यक्त करने के लिए व्यस्त रहते हैं । इस विधा में मानव