व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र इसी अहंकार को चित्रण में ‘अभिमान’ संज्ञा से, वृत्ति में ‘हठ’ संज्ञा से तथा मन में ‘आसक्ति और आवेश’ संज्ञा से जाना जाता है ।
श्र आवेश एवं आसक्ति मानव के जीवन को सफल बनाने में सर्वदा असमर्थ हैं । इसीलिए आवेश एवं आसक्ति के उन्मूलन के लिये अध्ययन, प्रयोग एवं प्रयास है ।
श्र वृति के आश्रय में मन, चित के आश्रय में वृति, बुद्धि के आश्रय में चित का न होना ही मन और वृति, वृति और चित, चित और बुद्धि के बीच साविपरीतता है, यही बौद्धिक रहस्य है ।
★ उपरोक्त साविपरीतता को समाप्त करने तथा बौद्धिक रहस्यता अथवा अहंकार का उन्मूलन करने के लिए निश्चित प्रक्रिया है । इस निश्चित प्रक्रिया के अनुसार अभ्यास एवं व्यवहार से ही बौद्धिक रहस्यता का उन्मूलन होता है । ऐसी प्रक्रिया दो प्रकार से गण्य है :-
★ एक -अनुसंधान ।
★ दो - अनुसरण, अनुकरण, अध्ययन ।
ज्ञ एक - अनुसंधान - जो आविष्कारात्मक अनुभूति है, उसका साधक पूरा अध्ययन करता है । पूरे अध्ययन से तात्पर्य है क्रिया की आरंभिक स्थिति अर्थात् ह्रास की अंतिम स्थिति और विकास व जागृति तक अध्ययन करना ।
ज्ञ इस अध्ययन से साधक को यह स्पष्ट होता है कि अंतिम से अंतिम ह्रास एक सूक्ष्म परमाणु या इससे भी सूक्ष्म हो सकता है । यह परिणाम कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, अंततोगत्वा क्रिया ही है । अब उससे यह भी स्पष्ट होता है कि समस्त क्रियाएँ महावकाश में ओत-प्रोत हैं । यह महावकाश शून्य अर्थात् व्यापक वस्तु ही है । इस शून्य की सर्वत्र समान अवस्थिति ही एक मात्र कारण है कि समस्त इकाईयों की क्रिया के लिए समान रूप से प्रेरणा सम्पन्न रहने के लिये सत्ता उपलब्ध है । ऐसे समाधि तप्त साधक में, ज्ञान-विज्ञान-विवेक सफल होता है । जिसने संपूर्ण ह्रास-विकास को देखा है, स्वयम् को देखा है और अपने को सतत् विकासशील सृष्टि के किसी विकासांश में पाया । अब साधक यहाँ से विकास की ओर अध्ययन करता है । अध्ययन पूर्वक यह निर्णय में आता है कि विकास का चरमोत्कर्ष, व्यापक सत्ता में समूची क्रियाएँ अनवरत क्रियाशील हैं, इसी व्यापकता में अनुभूति योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता का उपार्जन ही एकमात्र परम पुरुषार्थ है । साधक यह भी अनुभव करता है कि यह मात्र उसका अथवा एक साधक का लक्ष्य नहीं अपितु समूचे मानव का अंतिम लक्ष्य है । अत: ऐसी क्षमता, योग्यता एवं पात्रता को उपार्जित करने के लिए अमानवीयता से मानवीयता की ओर न्यायपूर्ण व्यवहारपूर्वक स्वयं को अपनी स्थिति में पाता है । साधक जब अभ्यासपूर्वक पूर्णतया न्यायपूर्ण व्यवहार व धर्मपूर्ण विचार में प्रतिष्ठित हो जाता है, तो तत्काल ही ऐसी तात्विकता सहित प्रतिभा संपन्न साधक, देव मानव एवं दिव्य मानवीयता के लिए जो शेष जागृति है, उसकी पूर्ति हेतु चैतन्य पक्ष की क्षमता को विकसित करना आरंभ कर देता है । फलस्वरूप ही देव मानवीयता और दिव्य मानवीयता का पात्र बनता है और व्यापकता की अनुभूति करने लगता है । व्यापकता में संपूर्ण प्रकृति का अस्तित्व, विकास और जागृति को अनुभव करने