व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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ज्ञ मन, वृत्ति से; वृत्ति चित्त से; चित्त बुद्धि से; तथा बुद्धि आत्मा से आप्लावित रहती ही है । यही जागृति है फलत: इस क्रम में क्रियाशील होने पर, तृप्त होने के कारण, उनके क्रियाकलाप में पूर्ण सक्षमता आ जाती है, जिससे श्रम का क्षोभ नहीं होता तथा जीवन के सभी सोपानों में विश्राम प्रमाणित होता है । यही सर्वतोमुखी समाधान और अभ्युदय है । ऐसी स्थिति में शरीर पूर्णत: मन द्वारा नियंत्रित होता है । नियंत्रित अर्थात् संज्ञानशीलता के आधार पर संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं ।

श्र जड़ परमाणु ही विकास पूर्वक चैतन्य अवस्था अथवा पद को पाता है ।

ज्ञ उपरोक्त क्रमानुसार जड़ परमाणु विकास को पाकर चैतन्य पद में जीवावस्था में संवेदनाओं को वंशानुसार पहचानने के रूप में प्रमाणित हैं । तात्पर्य यह है कि ‘जीवन-पुंज’ के रूप में एक परमाणु क्रियाशील रहता है ।

श्र जीवावस्था में, मन शरीर को जीने की आशा पूर्वक जीवंत बनाये रखते हुये वंशानुषंगीय विधि से कार्य करता है । अत: इसे अजागृत की संज्ञा है । जीवावस्था में बौद्धिक पक्ष अविकसित रहता है । उस अवस्था में मन, शरीर द्वारा नियंत्रित होता है तथा वृत्ति और चित्त उपेक्षित रहते हैं ।

श्र ज्ञानावस्था में बुद्धि तीन अवस्थाओं में परिलक्षित होती है ः-

★ (1) अल्प विकसित (अल्प जागृत) - जीवन में इच्छा पूर्वक विचार एवं आशावादी प्रवृत्ति हो तो उसे अल्प जागृत की संज्ञा दी जाती है । इस दशा में मन, वृत्ति, चित्त तंत्रित होते हैं ।

(2) अर्ध विकसित (अर्ध जागृत) - आत्म बोध रहित संकल्प (अवधारणा) पूर्वक इच्छा, विचार व आशा की प्रवृत्ति को अर्ध जागृत की संज्ञा है । इस दशा में मन, वृत्ति व चित्त बुद्धि-तंत्रित होते हैं ।

(3) विकसित (जागृत-पूर्ण जागृत) - आत्म बोध सहित संकल्प पूर्वक इच्छा, विचार, आशा प्रवृत्ति को जागृत की संज्ञा दी जाती है । इस दशा में मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि आत्मा द्वारा नियंत्रित एवं अनुशासित होते हैं ।

श्र केवल वृत्ति और मन के संयोग की स्थिति में मानव जीवन में निद्रा अथवा स्वप्न का कार्य ही सम्पादित होता है । कार्य-व्यवहार में प्रमाणित न होने वाली कल्पनाएँ स्वप्न हैं ।

श्र आत्म बोध पर्यन्त, मानव के द्वारा जागृत, स्वप्न एवम् सुषुप्ति (निद्रा) अवस्था में कायिक, वाचिक तथा मानसिक साधनों से सम्पन्न होने वाले समस्त क्रिया कलाप के मूल में अहंकार ही है । अर्थात् भ्रमित मान्यताएँ ही हैं ।

श्र आत्म बोध रहित बुद्धि की ‘अहंकार’ संज्ञा है । आत्मबोध होने तक अहंकार का अभाव नहीं है ।