व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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लगता है । इस उपलब्धि के फलस्वरूप ही साधक अनुभव करता है कि जीवन सफल हो गया, जागृति की चरम उपलब्धि हुई । यह उसमें ‘प्राप्त अनुभूति के आनंद’ को परंपरा प्रमाण के रूप में स्थिर कर देता है । ऐसी उपलब्धि के अनंतर रहस्यता के उन्मूलन की दक्षता, व्यवहार में मानवीयता की परिपूर्ण उपादेयता को सिद्ध करने में उनका प्रस्तुतीकरण ही प्रमाण बन जाता है ।

★ दो - अनुसरण, अनुकरण तथा अध्ययन ः- इसका विशद् विश्लेषण पूर्व के अध्यायों में यथा-स्थान किया है, जिसका सारभूत कार्यक्रम है । यह जागृत परंपरागत विधि से सार्थक होता है ।

ज्ञ 1. न्यायपूर्ण व्यवहार का अनुकरण अथवा अनुसरण करना ।

ज्ञ 2. समाधान पूर्ण (धर्म पूर्ण) विचार में प्रवृत्त होना-रहना ।

ज्ञ उपरोक्त दोनों कार्यक्रमों की दृढ़ता एवं निष्ठा की अपेक्षा में सत्यता की अनुभूति का अधिकार परिणाम पूर्वक प्राप्त होता है, फलस्वरूप बुद्धि आप्लावित होती है ।

ज्ञ उपरोक्तानुसार जब साधक मानवीयतापूर्ण व्यवहार एवं धर्म पूर्ण विचार में प्रतिष्ठित हो जाता है तब मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्धि सहज क्रियाएं किस प्रकार से संपादित होती है, इसका अनुभूतिपरक वर्णन नीचे दिया गया है ।

श्र मन जब वृत्ति का संकेत ग्रहण करने योग्य होता है तब न्यायपूर्ण व्यवहार में परिवर्तित होता है, जो मित्र आशाएं हैं । मैत्री तथा न्याय की प्रत्याशा ही स्नेह के रूप में प्रदर्शित होती है । स्नेह के फलस्वरूप ही सुख तथा न्याय एवं निर्विरोधिता है । मानवीयता के संरक्षणात्मक, परिपालनात्मक और आचरणात्मक नियमों की ही ‘न्याय’ संज्ञा है ।

श्र वृत्ति जब चित्त का संकेत ग्रहण करने योग्य होती है, तब शान्ति सहज अनुभव होता है । विचार की पुष्टि चिन्तन (चित्रण) से ही है । चिन्तन-चित्रण से ही प्रक्रिया, फल और प्रयोजन का निर्णय होता है ।

★ अत: मन, वृत्ति तथा चित्त की एकसूत्रता से (परानुक्रमता से) न्यायपूर्ण व्यवहार के लिए मित्र आशाएं जन्मती हैं जो प्रक्रिया, फल और प्रयोजन का निर्णय करती हैं, जिसे ‘धर्म पूर्ण विचार’ संज्ञा है ।

श्र चित्त जब बुद्धि का संकेत ग्रहण करने योग्य होता है तब संतोष सहज अनुभूति होती है । फलस्वरूप स्वायत्त मानव जीवन का प्रादुर्भाव होता है अर्थात् मानव स्व-तंत्रित होता है ।

ज्ञ ऐसे स्वतंत्र मानव में अधिक उत्पादन, कम उपभोग तथा अपव्यय का अत्याभाव होता है और वह अधिकाधिक जागृति के लिए प्रेरणा स्त्रोत होता है । मानव में स्वतंत्रता की तृषा पाई ही जाती है ।