व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि एकसूत्रता से न्यायपूर्ण व्यवहार एवं धर्मपूर्ण विचार के लिए सत्य प्रतीति होता है ।

श्र बुद्धि जब आत्मा का संकेत ग्रहण करने योग्य विकास को पाती है, तब ‘स्व-बोध’ होता है, यही ‘आत्मबोध’ हैं । आत्मबोध से सत्य संकल्प होता है । सत्य संकल्प मात्र सत्य पूर्ण एवं सत्यपूर्ण आचरण ही है ।

श्र मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि आत्मानुशासित होने पर न्यायपूर्ण व्यवहार, धर्म पूर्ण विचार में सत्यानुभूति के कारण प्रतिष्ठित होता है ।

श्र निश्चयात्मक निरंतरता ही संकल्प है । निश्चय सहित चित्रण ही योजना है तथा योजना सहित विचार ही समाधान सहज अभिव्यक्ति है ।

श्र पूर्वानुषंगिक संकेत ग्रहण योग्यता का प्रादुर्भाव शक्ति की अंतर्नियामन प्रक्रिया से ही है । यह व्यवहार का विचार में, विचार का इच्छा में, इच्छा का संकल्प में तथा संकल्प का अनुभव में अथवा मध्यस्थ क्रिया में प्रत्यावर्तन ही है ।

श्र अपराध के अभाव में आशा का प्रत्यावर्तन, अन्याय के अभाव में विचार का प्रत्यावर्तन, आसक्ति के अभाव में इच्छा का प्रत्यावर्तन तथा अज्ञान के अभाव में संकल्प का प्रत्यावर्तन होता है ।

★ अत: अपराधहीन व्यवहार के लिए व्यवस्था का दबाव एवं प्रभाव, अन्यायहीन विचार के लिए सामाजिक आचरण का प्रभाव, आसक्ति रहित इच्छा के लिए अध्ययन एवं संस्कार का प्रभाव तथा अज्ञान रहित बुद्धि के लिए अन्तर्नियामन अथवा ध्यान आवश्यक है, जिससे ही प्रत्यावर्तन क्रिया सफल है अथवा असफल है । ध्यान का अर्थ समझने के लिए मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि को केन्द्रित करना और समझने-अनुभव करने के उपरांत प्रमाणित करने के लिए मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि को केंद्रित करना । अर्थबोध होने के लिए तथा अर्थ बोध को प्रमाणित करने के लिए ध्यान होना आवश्यक है । यही ध्येय है । सर्वमानव ध्याता है ।

ज्ञ अत: यह निष्कर्ष निकलता है कि मानवीयतापूर्ण व्यवस्था, सामाजिक आचरण, अध्ययन और संस्कार के साथ ही अंतर्नियामन आवश्यक है, जिससे चरम विकास (जागृति) की उपलब्धि संभव है ।

श्र न्याय पूर्ण व्यवहार, धर्मपूर्ण विचार तथा सत्यानुभूतिपूर्ण इच्छा संपन्न हो जाना ही पूर्ण जागृति है ।

श्र व्यवहार में गलती एवं अपराध का न होना ही पूर्ण जागृति का लक्षण है । इसे मानव की परस्परता में देखा भी जाता है । न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना ही पूर्ण जागृति है ।