व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

Back to Books
Page 119

श्र इकाई क्रिया है । मानव ही सहअस्तित्व में अनुभव मूलक विधि से संपूर्ण समझ संपन्न होता है । जागृत मानव, भ्रमित मानव के जागृति का मार्ग प्रशस्त कर स्वयं के जागृति को प्रमाणित करता है ।

श्र प्रत्येक इकाई का सर्वांगीण दर्शन उसके रूप, गुण, स्वभाव व धर्म से होता है । इनमें से रूप, गुण और स्वभाव समझ में आता है और धर्म की मात्र अनुभूति ही संभव है, जो अनुभव प्राप्त इकाई द्वारा एक प्रक्रियाबद्ध अनुभव के संभावना पूर्ण आदेश, संदेश एवं निर्देश व अध्ययन से ही संभव है ।

श्र जीवन में अनुभव सहअस्तित्व में होना स्पष्ट है । अनुभव मूलक विधि से पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संज्ञानशीलता पूर्वक व्यवस्था में प्रमाणित होना स्वाभाविक है । इसी आधार पर मन में मूल्यों का आस्वादन क्रिया संपन्न होता है । तब संज्ञानशीलता अर्थात् सहअस्तित्व समाधान प्रधान रूप में प्रमाणित होता है । यही मूल्यों के आस्वादन के रूप में परिलक्षित होता है । यही निरंतर सुख का प्रमाण है और संज्ञानशीलता पूर्वक संवेदना नियंत्रित होने का प्रमाण है ।

श्र जीवन सदा सुख की पिपासा से तृषित रहता है ।

★ सुख की उपलब्धि के लिये पंचेन्द्रियों द्वारा अजस्त्र प्रयत्न के पश्चात् भी उसकी (सुख की) अक्षुण्णता या निरंतरता न हो पाने के परिणाम स्वरूप ही ऐसे सुख की निरंतरता की संभावना की ओर मानव पुन: प्रयत्नशील होता है । ऐसी संभावना इस सिद्धांत पर है कि जिसका चैतन्य पक्ष जितना जागृत है उसके पूर्ण होने व प्रमाणित होने की उतनी ही संभावना है । जिससे सुख की निरंतरता होती है । यही कारण है कि मानव अपने से अधिक जागृत से संपर्क एवं संबंध के लिये प्रयत्नशील रहता है ।

श्र रहस्यता का उन्मूलन चैतन्य पक्ष (बौद्धिक) के जागृति के स्तर पर आधारित है । चैतन्य पक्ष (बौद्धिक) सहज जागृति स्तर भेद से उसकी अवस्थाएँ हैं ।

श्र बौद्धिक विकास ः- पूर्ण जागृत, जागृत अर्ध जागृत, अल्प जागृत तथा अजागृत भेद से है । इसे ही पूर्ण चेतन, चेतन, अर्ध चेतन, अल्प चेतन तथा अचेतन के नाम से भी संबोधित किया गया है ।

श्र चैतन्य इकाई में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि व आत्मा ये पाँच बल अविभाज्य हैं ।

श्र मानव के प्रत्येक क्रियाकलाप में बौद्धिक प्रयुक्ति है । यह क्रम से आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अस्तित्वानुभूति है ।

श्र भ्रमवश मन द्वारा संवेदना सापेक्ष आशा, वृत्ति के द्वारा आशा के अनुरूप विचार, चित्त के द्वारा विचार के अनुरूप इच्छा; यह इंद्रिय मूलक संवेदनशील प्रणाली है । बुद्धि के आत्मविमुख होने से भ्रमित चित्रण और इच्छाओं का होना पाया जाता है ।