व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र जागृति में मन की आशा वृत्ति की अनुरूपता में, वृत्ति के द्वारा विचार चित्त की अनुरूपता में, चित्त की इच्छा बुद्धि के बोधन के अनुरूप तथा बुद्धि आत्मा की अस्तित्वानुभूति पूर्वक सार्थक होती है । फलत: प्रत्यावर्तन-परावर्तन क्रियाएं सिद्ध होती हैं ।
श्र स्थूल शरीर और मन के मध्य में आशा, मन और वृत्ति के मध्य में विचार, वृत्ति और चित्त के मध्य में इच्छा, चित्त और बुद्धि के मध्य में संकल्प तथा बुद्धि और आत्मा के मध्य में प्रमाण की अपेक्षा रहती है तथा यह आवर्तन क्रिया है । प्रत्यावर्तन-परावर्तन के संयुक्त रूप का नाम आवर्तन क्रिया है । यही जागृत जीवन चक्र है ।
श्र इस प्रकार जीवन में सामरस्यता रहती है । शरीर के लिये मन, मन के लिये वृत्ति, वृत्ति के लिये चित्त, चित्त के लिये बुद्धि तथा बुद्धि के लिये आत्मा, आत्मा के लिये सहअस्तित्व में अनुभव सहज प्रेरकता है ।
ज्ञ स्थूल शरीर में संवेदनाओं की तृप्ति के लिए मन में आशा, मन की इस आशा के समर्थन में वृत्ति में विचार, वृत्ति के ऐसे विचार के समर्थन के लिए चित्त में इच्छा तथा चित्त में इच्छा के समर्थन के लिए बुद्धि में अपेक्षा अथवा कामना बनी रहती है । शरीर से मन, मन से वृत्ति, वृत्ति से चित्त तथा चित्त से बुद्धि विकसित इकाई होने के कारण इस परस्परता में विषमता रहती है । बुद्धि में यथार्थ अपेक्षा बनी रहती है ।
★ मन के अनुरूप ही स्थूल शरीर का संचालन है, जिससे कि इनके बीच में आशा बनी रहती है । परंतु वृत्ति मन से विकसित होने के कारण मन की आशा के अनुरूप नहीं बन पाती और परस्पर विषमता बनी ही रहती है । वृत्ति अपने अनुसार मन और शरीर का उपयोग चाहती है । इसी क्रम से वृत्ति, चित्त में विषमता बनी ही रहती है । यह विषमता ही श्रम की अनुभूति तथा विश्राम की तृषा के लिये कारण सिद्ध होती है ।
ज्ञ अनुभव मूलक विधि से सहअस्तित्व में अनुभव प्रमाण आत्मा में, अनुभव के अनुसार बोध बुद्धि में, बोधानुरूप चिंतन चित्त में, चिंतन अनुरूप तुलन (न्याय, धर्म, सत्य) वृत्ति में, तुलन अनुसार आस्वादन मन में होता है ।
ज्ञ अनुभवगामी विधि से वृत्ति में उत्पन्न विचारों के अनुरूप मन में आशा का होना तथा उसकी पूर्ति हेतु ही शरीर का उपयोग एवं सदुपयोग करने की, चित्त में उत्पन्न इच्छा को कार्यरूप देने हेतु विचार करने की, बुद्धि में आत्मानुभव के लिये किये गये संकल्प के अनुसार इच्छा की अपेक्षा का नियंत्रित बने रहना ही प्रत्यावर्तन क्रिया है ।
ज्ञ आत्मा के मध्यस्थ क्रिया होने के कारण - बुद्धि, चित्त, वृत्ति, मन तथा शरीर; आत्मा द्वारा अनुशासित तथा नियन्त्रित होना अस्तित्व सहज है । इस नियन्त्रण के विरोध के क्रम में जो प्रयास है, वह ही विषमता को जन्म देता है ।