व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
★ मानव के लिए सुख ही धर्म है । सुख की आशा से ओतप्रोत मानव को एक क्षण के लिए भी इस कामना से विमुख नहीं किया जा सकता । धर्म की परिभाषा ही इस प्रकार की गई है कि “जिससे जिसका वियोग न किया जा सके, अथवा जिसका वियोग सम्भव न हो, वह उसका धर्म है ।” धर्म की इसी परिभाषा के आधार पर पदार्थ का धर्म ‘अस्तित्व’, अन्न व वनस्पति का धर्म ‘पुष्टि’, जीवों का धर्म ‘जीने की आशा’ और मानव का धर्म ‘सुख’ प्रतिपादित किया गया । यह भी प्रतिपादित किया गया कि हर विकसित अवस्था की इकाई में अविकसित इकाई का धर्म विलय रहता ही है ।
:: उपरिवर्णित सम्बन्ध एवम् सम्पर्क में तारतम्यात्मक व्यवहार पक्ष के आनुषंगिक मानव का, विभिन्न विभूतिपरक एवम् स्थितिपरक अध्ययन आवश्यक तथा वांछनीय है । अस्तु, सभी मानव आबाल-वृद्ध निम्न बारह स्थिति में गण्य है । ये सभी सुखी होना चाहते हैं । सुख भी नियम से, दुःख भी नियम से होना सिद्ध हुआ है । अतः निम्न बारह स्तर में पाये जाने वाले मानव किन नियम-सिद्ध प्रक्रिया द्वारा सुखी होना पाए जाते हैं, उसका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है - यह सब व्यवहार संबंध व सम्पर्कात्मक है -
श्र 1. बलवान दयापूर्वक सुखी होता है,
श्र 2. बुद्धिमान विवेक तथा विज्ञान पूर्वक,
श्र 3. रूपवान सत् चरित्रता पूर्वक,
श्र 4. पदवान न्याय पूर्वक,
श्र 5. धनवान उदारता पूर्वक,
श्र 6. विद्यार्थी निष्ठा पूर्वक,
श्र 7. सहयोगी कर्त्तव्य पूर्वक
श्र 8. साथी दायित्व पूर्वक
श्र 9. तपस्वी संतोष पूर्वक,
श्र 10. लोक सेवक स्नेह पूर्वक,
श्र 11. सहअस्तित्व में प्रेम पूर्वक मानव सुखी होता है ।
श्र 12. रोगी तथा बालक के साथ आज्ञा पालन के रूप में सुखानुभूतियाँ सिद्ध हुई हैं ।
★ धर्मनीति के परिपालन से समस्त सम्पर्कात्मक तथा सम्बन्धात्मक व्यवहार में क्या अपेक्षा की जाती है, जिससे कि जीवन सफल होता है नीचे दर्शाया गया है । ऐसी धर्मनैतिक व्यवस्था तथा इसके लिए किया गया समस्त व्यवहार, प्रयोग तथा प्रयास अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का पोषक है ।