व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
ज्ञ साधक द्वारा साध्य की उपलब्धि की संभावनाओं के अनुरूप फल मिलने पर निर्णय होता है कि साधना सही दिशा में गतिशील है । संभावनायें सुदृढ़ होने पर मान्यताओं के रूप में अवतरित होती है । सभी मान्यतायें विकास अर्थात् जागृति तथा व्यवहार के लिए है ।
ज्ञ विकास के लिए जो मान्यतायें हैं वे अंतरंग में अभ्यास एवं जागृति के लिए प्रेरणा स्त्रोत तथा बहिरंग में सामाजिकता तथा व्यवसाय के लिए प्रेरणा स्त्रोत है ।
सामाजिक दायित्व का प्रमाण हर समझदार परिवार में समाधान, समृद्धिपूर्वक जीने में प्रमाणित होता है । यह क्रमशः सम्पूर्ण मानव का एक इकाई के रूप में पहचान पाना बन जाता है । पहचानने के फलन में निर्वाह करना बनता ही है । ऐसी निर्वाह विधि स्वाभाविक रूप में मूल्यों से अनुबंधित रहता ही है । यही व्यवस्था में भागीदारी की स्थिति में परिवार व्यवस्था से अन्तर्राष्ट्रीय या विश्व परिवार व्यवस्था तक स्थितियों में भागीदारी की आवश्यकता रहता ही है । ऐसे भागीदारी के क्रम में मानव अपने में, से समझदारी विधि से प्रस्तुत होना बनता है । समझदारी विधि से ही हर नर-नारी व्यवस्था में भागीदारी करना सुलभ सहज और आवश्यक है । इसी क्रम से मानव लक्ष्य प्रमाणित होते हैं जो समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रूप में पहचाना गया है, इसे प्रमाणित करना ही मानवीयता पूर्ण व्यवस्था है ।
★ 7. मित्र सम्बन्ध ः-
:: समाधान, समृद्धि सहज समानता ही मित्र संबंध है एवं सर्वतोमुखी समाधान में सहभागिता हो उसकी ‘मित्र’ संज्ञा है ।
:: जिसमें बैर का अभाव हो उसकी मित्र संज्ञा है ।
इस सम्बन्ध में यह आवश्यक है कि एक पक्ष यदि किसी विपरीत घटना या परिस्थिति से घिर जाए तो दूसरा पक्ष अपना पूरा तन, मन और धन व्यय करने के लिए तथा मित्र को उस घटना-विशेष अथवा परिस्थिति विशेष से उबारने के लिये प्रयत्नशील हो जाये । यही मित्रता की चरम उपलब्धि है । घटना ग्रस्त या परिस्थिति ग्रस्त मित्र की जो कठिनाइयाँ है, वह पूरी की पूरी दूसरे मित्र को प्रतिभासित होती है । मित्रता की कसौटी ही यह है कि परस्पर की कठिनाइयों को दूसरा पक्ष सटीक स्वीकार लेता है और यदि उसका परिहार है, तो उसके लिये अपनी शक्तियों को नियोजित करता है ।
:: मित्रता की निरंतरता न्याय पूर्ण व्यवहार से ही सफल होती है । निर्वाह के इन समस्त सम्बन्धों से व्यष्टि से समष्टि तक पोषक अन्यथा शोषक सिद्ध है । मित्र-मित्र सम्बन्ध की परस्परता में विश्वास, सम्मान व स्नेह मूल्य प्रधान है एवं प्रेम संबंध भावी रहता है ।
ज्ञ विधि का अर्थ है मानव में निहित अमानवीयता का शमन तथा जागृति का मार्ग प्रशस्त करना । व्यवस्था का तात्पर्य है मानवीयता की स्थापना के लिए प्रोत्साहन योग्य अवसर व साधन को उपलब्ध कराने की सामर्थ्य अर्जित करना ।