व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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होना) वे पाते हैं, वही इसकी उपलब्धि है । प्रदाय के बदले में किसी भौतिक वस्तु की प्राप्ति की अभिलाषा नहीं रहती ।

ज्ञ शिष्य का गुरु के साथ विश्वास सहित पहचान किया रहना सहज है । यह स्वाभाविक मिलन है । योग, मिलन के रूप में स्पष्ट होता है । गुरु-शिष्य का योग अपने में जागृति के आकाँक्षा पूर्वक कार्य-व्यवहार और अध्ययन करना, क्योंकि गुरु ही अध्ययन कराने वाला होना सुस्पष्ट है । अध्ययन कराने के क्रम में सदा-सदा शिष्य द्वारा ग्रहण करने की अपेक्षा व विश्वास समाया रहता है । उसमें जितने भी शिष्य सार्थक होते हैंं, गुरु में प्रसन्नता का स्रोत समाया रहता है, यह स्पष्ट हो चुका है । यही गुरु-शिष्य के परस्परता में सफलता का प्रमाण है । जैसे-जैसे शिष्य का आकाँक्षा और जिज्ञासा शांत होता है, वैसे ही सभी संशय दूर होते जाता है । ऐसे संशय मुक्ति विधि से गौरव, श्रद्धा, कृतज्ञता मूल्य शिष्य में गुरु के लिए अर्पित होना पाया जाता है । इस प्रकार गुरु शिष्य में मूल्यों का मूल्यांकन पूर्वक उत्सवित होना स्वाभाविक होता है ।

★ 4. भाई और बहन संबंध ः-

ज्ञ भाई और बहन के संबंध को सौहार्द्र-भाव के नाम से जाना जाता है । इसमें परस्पर जागृति की प्रत्याशा एवं उत्साह है । एक की जागृति, दूसरे पक्ष के जागृति को आप्लावित कर देता है । जैसे यदि कोई बहन किन्हीं विशेष सद्गुणों से संपन्न है तो इसके कारण बहन स्वयम् में जितना आप्लावित है उतना ही अथवा उससे अधिक आप्लावन भाई में पाया जाता है । इसी प्रकार भाई का भाई के साथ अथवा बहन का बहन के साथ पाया जाता है ।

ज्ञ भाई-बहन की पहचान एक निश्चित आयु में हो पाती है । पहचान होते ही परस्परता में सच्चाई, समझदारी और परिवार सम्मत अथवा जागृत मानव परिवार सम्मत अपेक्षा के अनुसार, कौमार्य अवस्था में आज्ञापालन सहयोग और अनुसरण जैसे कार्यों में परस्पर मूल्यांकन होना पाया जाता है । यही मित्रों के साथ भी होता है । जब भाई-बहन इन मुद्दों पर मूल्यांकन करने लगते हैं तब भी अभिभावक और गुरुजनों के साथ आज्ञापालन संबंध रहता ही है । अनुसरण भी इन्हीेंं दो पक्षों से जुड़ा रहता है । मूल्यांकन में ये सब बात स्पष्ट होना स्वाभाविक रहता है । जहाँ तक सहयोग की अभिव्यक्ति है, इसमें एक दूसरे को अधिकाधिक सटीकता की और विचार अथवा प्रकाशित होने की संभावना बनी ही रहती है ।

कौमार्य और युवावस्था के बीच भाई-बहन, भाई-भाई, बहन-बहन; के परस्परता में अनुशासन की बात आती है । अनुशासन आज्ञा पालन के क्रम में एक पक्षीय हो पाते हैंं । अनुशासन गुरुजनों व अभिभावकों से जीने में प्रमाणित रहने के आधार पर, अनुशासन बोध संतानों में होना स्वाभाविक है । इन्हीं तथ्य के आधार पर, हर मानव संतान अनुशासन को अपने विचारों से जोड़ना शुरु करता है । उसी के साथ आवश्यक-अनावश्यक तथा उपयोगी, अनुपयोगी विधा में भी वैचारिक प्रयुक्तियाँ होना स्वाभाविक रहता है । इस प्रकार अनुशासन आवश्यकता, उपयोगिता के आधार पर स्वीकृत होना शुरु होता है । शनै:-शनै: हर मानव संतान क्रम से अनुशासन में दक्ष होना पाया जाता है । इन सभी विधाओं में मानव संतान गुजरता हुआ अर्थात् आज्ञापालन, अनुशासन