व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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सम्मान, प्रतिष्ठा, आदर और यश का प्रश्न है, वह पति अथवा पत्नी दोनों में सम्मिलित रूप से रहता है तथा उनमें से किसी एक को भी मिलने पर दूसरे पक्ष मेें वह समान रूप में बंटता ही है और इसकी स्वीकृति भी है । पति-पत्नी के रूप में दो शरीर एक मन होने का यही प्रमाण है ।

ज्ञ परस्परता रूपी सभी संबंधों में विश्वास मूल्य सदा-सदा होना परमावश्यक है । यही मूल मुद्दा है संबंधों को पहचानने का । सभी संबंध अथवा स्थापित संबंध पहचान में होने के उपरांत शरीर काल तक निर्वाह होने की बात आती है । यही जागृत मानव परंपरा का प्रमाण है । संबंधों में से एक महत्वपूर्ण संबंध पति-पत्नी संबंध है । इस संबंध में परस्परता में मूल्यों का पहचान इस प्रकार से होता है कि विश्वास पूर्वक सम्मान, स्नेह व प्रेम मूल्यों का निरंतर अनुभव होता है या समय-समय पर होता है । न्यूनतम विश्वास मूल्य बना ही रहता है । प्रेम मूल्य; दया, कृपा, करुणा की अभिव्यक्ति है । इस विधा मेें पति में मूल्यांकन के आधार पर दया, कृपा, करुणा मूल्यों का स्पष्ट होना, उसी प्रकार से पत्नी द्वारा भी इन मूल्यों का स्पष्ट होना ही प्रेम मूल्य है । वास्तविक रूप में पात्रता के अनुसार वस्तु का मूल्यांकन, पात्रता के अनुसार योग्यता का मूल्यांकन, योग्यता के नसार पात्रता का मूल्यांकन परस्परता में होना स्वाभाविक क्रिया है । यह नित्य नैमित्यिक है । नित्य मूल्यांकन का तात्पर्य हम मूल्यांकन में अभ्यस्त हो गये हैं । नैमित्यिक का तात्पर्य-प्रयत्न पूर्वक ध्यान पूर्वक मूल्यांकन करने से है । ऐसी स्थिति बारंबार होते-होते मूल्यांकन सहज रूप से होना पाया जाता है । इस प्रकार योग्यता के अनुसार पात्रता, पात्रता के अनुसार योग्यता का मूल्यांकन विशेषकर पति-पत्नी संबंध में होना अति आवश्यक है । ये दोनों मूल्यांकन के साथ ही पात्रता और योग्यता में संतुलन स्थिति को पाया जाता है । तीसरी विधि से पति या पत्नी अथवा दोनों में योग्यता, पात्रता हो ही नहीं, यह दाम्पत्य जीवन अथवा किसी भी प्रौढ़/युवा में संभव ही नहीं है । यही हो सकता है कि योग्यता और पात्रता का न्यूनातिरेक हो सकता है । इसी में सामंजस्य को पाने के लिए दाम्पत्य जीवन का महती उपयोग होना पाया जाता है । इन तथ्यों को, पूर्व आशयों को भुलावा देना ही दु:ख और परेशानी का कारण है । यही भ्रम है ।

★ 3. गुरु और शिष्य संबंध :-

ज्ञ गुरु की ओर से शिष्य के प्रति आशा बंधी रहती है कि जो अध्ययन कराया जाता है, उसका बोध शिष्य को होगा । शिष्य कृतज्ञ व आज्ञाकारी होगा ।

ज्ञ शिष्य की गुरु से प्रत्याशा रहती है कि उसकी वांछा तथा जिज्ञासा के आधार पर उन्हीं दिशाओं में गुरु द्वारा अध्ययन कराया जाएगा । गुरु और शिष्य दोनों में उपलब्धि की कामना की साम्यता है । प्रक्रिया में पूरकता है । एक प्रदाता है और दूसरा प्राप्तकर्त्ता है । प्राप्तकर्त्ता और प्रदाता की एक ही अभिलाषा है कि ‘बोध’ पूर्ण हो जाये ।

ज्ञ शिष्य का अर्थ बोध जब पूर्ण हो जाता है, उस समय गुरु पर्व मनाता है अर्थात् गुरु को प्रसन्नता की अनुभूति होती है, यही वात्सल्य स्थिति है । तात्पर्य यह है कि हर एक बड़े अपने से छोटों में वांछित गुणों की प्रसारण क्रिया में तत्पर रहते हैंं । इसके बदले में जो तोष (उत्सवित