व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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6. व्यवस्था और समग्र व्यवस्था संबंध,

7. मित्र संबंध ।

★ 1. पिता-माता एवं पुत्र-पुत्री संबंध :- माता-पिता के संबंध में पुत्र-पुत्री के साथ मातृ भाव में शरीर भाव प्रधान रहता है तथा पितृ संबंध में बौद्धिक विकास की भावना प्रधान रहता है । मूल रूप में माता पोषण प्रधान तथा पिता संरक्षण प्रधान स्पष्ट है ।

माता पिता की पहचान हर मानव संतान किया ही रहता है । शिशुकाल की स्वस्थता का यह पहचान भी है । अतएव माता-पिता जिन मूल्यों के साथ प्रस्तुत होते हैं, वह ममता और वात्सल्य है । ममता मूल्य के रूप में पोषण प्रधान क्रिया होने के रूप में या कर्त्तव्य होने के रूप में स्पष्ट है । इसलिए मां की भूमिका ममता प्रधान वात्सल्य के रूप में समझ में आती है । ममता मूल्य के धारक-वाहक ही स्वयं में माँ है तथा पिता वात्सल्य प्रधान ममता के रूप में समझ में आता है ।

अभिभावक सन्तान का अभ्युदय ही चाहते हैं । कुछ आयु के अनन्तर इसका प्रमाण चाहते हैं ।

ज्ञ माता एवं पिता हर संतान से उनकी अवस्था के अनुरूप प्रत्याशा रखते हैं । उदाहरणार्थ शैशवावस्था में केवल बालक का लालन पालन ही माता-पिता का पुत्र-पुत्री के प्रति कर्त्तव्य एवं उद्देश्य होता है तथा इस कर्त्तव्य के निर्वाह के फलस्वरूप वह मात्र शिशु की मुस्कुराहट की ही अपेक्षा रखते हैं । कौमार्यावस्था में किंचित शिक्षा एवं भाषा का परिमार्जन चाहते हैं । इसी अवस्था में आज्ञापालन प्रवृत्ति, अनुशासन, शुचिता, संस्कृति का अनुकरण, परंपरा के गौरव का पालन करने की अपेक्षा होती है । कौमार्यावस्था के अनंतर संतान में उत्पादन सहित उत्तम सभ्यता की कामना करते हैं । सभ्यता के मूल में हर माता-पिता अपने संतान से कृतज्ञता (गौरवता) पाना चाहते हैं तथा केवल इस एक अमूल्य निधि को पाने के लिये तन, मन एवं धन से संतान की सेवा किया करते हैं । संतान के लिये हर माता-पिता अपने मन में अभ्युदय तथा समृद्धि की ही कामना रखते हैं, इन सब के मूल में कृतज्ञता की वाँछा रहती है । जो संतान माता-पिता एवं गुरु के कृतज्ञ नहीं होते हैं, उनका कृतघ्न होना अनिवार्य है, जिससे वह स्वयम् क्लेश परंपरा को प्राप्त करते हैंं और दूसरों को भी क्लेशित करते हैं ।

★ 2. पति-पत्नी संबंध :-

ज्ञ दाम्पत्य जीवन की चरम उपलब्धि ‘एक मन और दो शरीर होकर’ व्यवहार करना है । दाम्पत्य जीवन में व्यवहार निर्वाह संपर्क एवं संबंध ही है । तात्पर्य यह है कि दाम्पत्य जीवन व्यक्ति के रूप में दो है और व्यवहार के रूप में एक हैं ।

ज्ञ एक मन और दो शरीर अनुभव करने के लिए दोनों पक्षों द्वारा निर्विरोध पूर्वक अपने संबंध एवं संपर्क का निर्वाह करना ही अवसर, आवश्यकता तथा उपलब्धि है । जहाँ तक मान,