व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
प्रक्रिया से, सोच विचार प्रक्रियाओं से गुजरता हुआ अपने आप में निश्चय की प्रक्रियाएँ आरंभ होते ही यही निश्चयन प्रक्रिया सुस्थिर होना ही आज्ञापालन और अनुशासन के आशय रहता ही है ।
जैसे ही युवावस्था में पहुँचते हैं, स्वाभाविक रूप में स्वानुशासन का प्रमाण आवश्यकता के रूप में होता ही है । यही अभ्युदय का प्रमाण होना पाया जाता है । स्वानुशासन सर्वतोमुखी समाधान के रूप में ही प्रमाणित होता है । यही मानव संचेतना की अपेक्षा और सार्थकता है । यह शिक्षा-संस्कार कार्यों से लोक सुलभ होना पाया जाता है । जागृत मानव परंपरा में ही मानवीय शिक्षा-संस्कार सार्थक होना पाया जाता है । इस विधि से कार्य-व्यवहार विचार सम्पन्न होते हुए भाई-बहन-मित्र संबंधों में विश्वास पूर्वक सम्मान व मूल्यांकन पूर्वक परस्परता में स्नेह मूल्य को सदा-सदा प्रमाणित करना होता है । इस विधि से इन संबंधों में विश्वास, सम्मान, स्नेह मूल्य प्रधान रहता है साथ ही प्रेम मूल्य स्पष्ट होना भावी रहता है ।
★ 5. साथी-सहयोगी संबंध ः-
ज्ञ एक दूसरे के लिए पूरक विधि से सार्थक होना पाया जाता है । यह संबंध सहयोगी की कर्त्तव्य निष्ठा से व साथी के दायित्व निष्ठा से सार्थक होना पाया जाता है । यह परस्पर पूरक संबंध है । इनमेें मूल मुद्दा दायित्व को निर्वाह करना, कर्त्तव्यों को पूरा करने में ही परस्परता में संगीत होना पाया जाता है । यह जागृत परंपरा की देन है । इसमें मुख्यत: विश्वास मूल्य रहता ही है । गौरव, सम्मान, स्नेह मूल्य अर्पित रहता है । सहयोगी के प्रति सम्मान मूल्य विश्वास के साथ अर्पित रहता है । इस विधि से मंगल मैत्री होना स्वाभाविक है ।
ज्ञ उपलब्धि एवं विकास के आधार पर साथी सहयोगी संबंध दो पक्षों में गण्य है । उसे साथी (स्वामी) से सहयोगी (सेवक) अकिंचनता को स्वीकारता है । उसे परिप्रेक्ष्य में सहयोगी, साथी को श्रेष्ठ मानता है, जो उसकी मौलिकता है । इस संबंध में साथी, सहयोगी का पूरा उत्तरदायी हो जाता है और सहयोगी साथी को ही उस परिप्रेक्ष्य के पक्षों का कर्त्ता मानता है । इस संबंध में साथी के विशेष गुण, निपुणता कुशलता दिखाई पड़ता है । साथी - सहयोगी संबंध वह है जिसमें पद एवं भौतिक आदान-प्रदान परस्परता में निश्चित व प्रत्याशित रहता है । इस प्रकार इस संबंध में भी सुखद स्थिति की निरंतरता देने वाली वस्तु विश्वास ही है । अस्तु, इसमें विश्वास की स्थिरता प्रदान किया रहना ही इस संबंध की अंतिम अनुभूति है ।
★ 6. समझदार मानव परंपरा में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का संबंध ः-
ज्ञ मानवत्व सहित व्यवस्था में विधि समायी रहती है । विधान निर्वाह रूप में प्रमाणित होता है । व्यवस्था का धारक-वाहक जागृत मानव ही होता है । व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए मानव को जागृत होना रहना आवश्यक है । जागृति पूर्वक ही हर नर-नारी जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का प्रमाण प्रस्तुत करता है ।